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ग्रहण कभी भी सम्भव नहीं है । क्योंकि इस बात की क्या गारण्टी है कि सभी सम्भावित विकल्पों को जान लिया गया है और उसकी तथा व्याख्या के सम्बन्ध में जितने भी विकल्प हो सकते हैं उनमें एक को छोड़कर शेष सभी निरस्त हो गये । जब तक हम इस सम्बन्ध में आश्वस्त नहीं हो जाते (जो कि सम्भव नहीं है) व्याप्ति या अबिनाभाव को नहीं जान सकते। तीसरे यदि यह विधि ऐन्द्रिक अनुभव पर आधारित है तो केवल जो कारण नहीं है उनके निरसन में ही सहायक हो सकती है, व्याप्ति ग्राहक नहीं । जैन दार्शनिकों का यह मानना कि चाहे ईहात्मक ज्ञान प्रमाणिक हो किन्तु उससे व्याप्ति ग्रहण नहीं होता, उचित ही है । पाश्चात्य तार्किकों के द्वारा कारण सम्बन्ध की खोज में प्राक्कल्पना की सुझावात्मक भूमिका मानना भी सही है और यदि तर्क का यही स्वरूप होता तो नैयायिकों का यह मानना भी सही होता कि तर्क व्याप्ति ग्रहण में मात्र सहयोगी है । किन्तु मेरी दृष्टि में तर्क का वास्तविक स्वरूप ऐसा नहीं है जैसा कि वात्सायन एवं जयन्त आदि टीकाकारों ने मान लिया है । स्वंय डा. बारलिगे ने भी तर्क स्वरूप के सम्बन्ध में उनके इस दृष्टिकोण को समुचित नहीं माना है । वे लिखते हैं- (It appears to me that this particular function of Tarka has heen overlooked by commentators of Nyaya Sutra and by many other Logicians (A modern Introduction to Indian Logic p. 123 ) । सर्वप्रथम तो हमें यह जान लेना चाहिए कि तर्क का विषय वस्तु के गुणों का ज्ञान या विधेय ज्ञान नहीं है, अपितु कार्य-कारण सम्बन्ध, अबिनाभाव सम्बन्ध या आपादान सम्बन्ध या ज्ञान है । 'यह पुरुष हो सकता' इस प्रकार के ज्ञान का तर्क से कोई लेना देना नहीं है । यह प्रत्यक्षात्मक ज्ञान है। इस समस्त भ्रान्ति के पीछे न्याय सूत्र में दी गई तर्क की परिभाषा की गलत व्याख्या है । न्याय सूत्र में तर्क की निम्न परिभाषा दी गई है. अविज्ञातत्वे अर्थ कारणोपपत्तितः तत्वज्ञानर्थम ऊहा तर्कः ( न्याय सूत्र 1/1/40) । वस्तुतः यहाँ तर्क का तात्पर्य मात्र अविज्ञान वस्तु के यथार्थ स्वरूप के ज्ञान के लिए की गई ऊहा (बौद्धिक) से नहीं है । अपितु इसमें महत्वपूर्ण शब्द है‘कारणोपपत्तितः’ वह कारण सम्बन्ध की युक्ति द्वारा होने वाला तत्त्व ज्ञान है या दो तथ्यों के बीच कार्य-कारण सम्बन्ध का ज्ञान है । जब तर्क कार्य कारण सम्बन्ध सूचित करता है तो फिर तर्क सम्भावना मूलक एवं अनिश्चित ज्ञान है यह कहने का क्या आधार है ? उपपत्तितः सिद्ध होने (To be proved ) का सूचक है और जब कार्य कारण भाव सिद्ध हो गये तो फिर वह सम्भावना मूलक एवं अनिश्चित ज्ञान कैसे कहा जा सकता है । दूसरे मूल सूत्र में कहीं ऐसा संकेत नहीं है कि जिससे यह कहा जा सके कि तर्क सम्भावनात्मक या अनिश्चित ज्ञान है । अतः न्यायिकों की यह धारणा कि तर्क सम्भावना मूलक ज्ञान है स्वतः खण्डित हो जाती
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जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान
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