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जबकि
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त' — सं (क,Vक,Vक,) ( क.. क.)
तसं (क)
S
S
-विकल्प
- विकल्प निषेध
सम्भावित निर्णय (प्राक्कल्पना)
त = तथ्य, कार्य या घटना (परवर्ती)
सं
= सम्भावना
क = कारण या पूर्ववर्ती
> = कारण सम्बन्ध आपादन
V = विकल्प
S=
निषेध
इसकी व्याख्या इस प्रकार होगी- किसी तथ्य, कार्य अथवा घटना के सम्बन्ध में कुछ सम्भावित विकल्प परिलक्षित होते हैं, एक को छोड़कर शेष सम्भावित विकल्प आनुभविक या तार्किक आधार पर निरस्त हो जाते हैं, अतः इस निर्णय की ओर अभिमुख होते हैं कि वह तथ्य, कार्य या घटना उस अवशिष्ट विकल्प सम्बन्धित हो सकती है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि ईहा, तर्क (न्याय - दर्शन) और प्राक्कल्पना तीनों ही हमें संशय के विभिन्न विकल्पों का निरसन करते हुए सर्वाधिक सम्भावित सत्यता की ओर पहुंचाने का प्रयास करती है । तीनों का निर्णय सम्भावित और सुझावात्मक होता है उसका भाषायी रूप होता है ' इसे ऐसा होना चाहिए' या 'यह ऐसा हो सकता है'। किन्तु निष्कर्ष के इस भाषायी स्वरूप की एकरूपता के आधार पर हमें इन्हें एक मानने की भूल नहीं करनी चाहिए । गम्भीरता से विचार करने पर यह बात स्पष्ट हो जाती है कि ये तीनों एक नहीं है । प्रथम तो यह क इनकी विचार की विषय वस्तु भिन्न-भिन्न हैं दूसरे यह कि ईहा प्राक्कल्पना और तर्क का प्रतीकात्मक स्वरूप भी एक नहीं है । सम्भवतः न्याय दार्शनिक इसी भ्रान्ति के कारण तर्क को सीधे-साधे व्याप्ति ग्राहक नहीं मानकर मात्र सहयोगी मानते रहे । यदि ‘तर्क’ का भी वास्तविक रूप सम्भावनामूलक ही है तो निश्चय ही न्याय दार्शनिकों की यह धारणा सत्य होती कि इस पद्धति से व्याप्ति ग्रहण नहीं हो सकता है। प्रथम तो यह कि सम्भावित विकल्पों का निरसन करते हुए हमारे पास जो अवशिष्ट विकल्प रह जायेगा वह भी सम्भावित ही होगा निर्णायक नहीं । दूसरे यह कि सम्भावित विकल्पों के निरसन की इस पद्धति के द्वारा अबिनाभाव या व्याप्ति
जैन ज्ञानदर्शन
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