________________
ऐसे दो संदर्भ मिलते हैं, जिनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि प्राचीनकाल में धर्म-अस्तिकाय और अधर्म - अस्तिकाय का अर्थ गति और स्थिति में सहायक द्रव्य नहीं था । भगवतीसूत्र के ही बीसवें शतक में धर्मास्तिकाय के जो पर्यायवाची दिये गये हैं, उनमें अट्ठारह पापस्थानों से विरति, पाँच समिति और तीन गुप्तियों के पालन को ही धर्मास्तिकाय कहा गया है । इसी प्रकार, प्राचीनकाल में अठारह पापस्थानों के सेवन तथा पाँच समितियों और तीन गुप्तियों के परिपालन नहीं करने को ही अधर्मास्तिकाय कहा जाता था । इसी प्रकार, भगवतीसूत्र के सोलहवें शतक में यह प्रश्न उठाया गया कि लोकान्त में खड़ा होकर कोई देव अलोक में अपना हाथ हिला सकता है या नहीं? इसका न केवल नकारात्मक उत्तर दिया गया, अपितु यह भी कहा गया कि गति की सम्भावना जीव और पुद्गल में है और अलोक में जीव और पुद्गल का अभाव होने से ऐसा संभव नहीं है । यदि उस समय धर्मास्तिकाय को गति का माध्यम माना गया होता, तो पुद्गल का अभाव होने पर वह ऐसा नहीं कर सकता, इस प्रकार का उत्तर नहीं दिया जाता, अपितु यहाँ धर्मास्तिकाय का अभाव ही बताया जाता है । धर्मास्तिकाय गति में सहायक द्रव्य है और अधर्मास्तिकाय स्थिति में सहायक द्रव्य है- यह अवधारणा एक परवर्ती घटना है, फिर भी इतना निश्चित है कि तत्त्वार्थसूत्र के रचनाकाल तक अर्थात् ईसा की तृतीय शताब्दी के उत्तरार्ध और चतुर्थ शताब्दी के पूर्वार्द्ध में यह अवधारणा अस्तित्त्व में आ गई थी। भगवती आदि में जो पूर्व संदर्भ निर्दिष्ट किए गए हैं, उनसे यह स्पष्ट है कि प्राचीनकाल अर्थात् ई. पू. तीसरी-चौथी शती तक धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय का अर्थ धर्म और अधर्म की ही अवधारणाएँ थीं ।
द्रव्य की अवधारणा
विश्व के मूलभूत घटक को ही सत् या द्रव्य कहा जाता है। प्राचीन भारतीय-परम्परा में जिसे सत् कहा जाता था, वही आगे चलकर न्याय-वैशेषिकदर्शन के प्रभाव से द्रव्य के रूप में माना गया । जिन्होंने विश्व के मूलघटक को एक, अद्वय और अपरिवर्तनशील माना, उन्होंने सत् शब्द का ही अधिक प्रयोग किया, परन्तु जिन्होंने उसे अनेक व परिवर्तनशील माना, उन्होंने सत् के स्थान पर द्रव्य शब्द का प्रयोग किया। भारतीय चिन्तन में वेदान्त, में सत् शब्द प्रयोग हुआ, जबकि दर्शन स्वतन्त्र धाराओं, यथा-न्याय, वैशेषिक आदि में द्रव्य और पदार्थ शब्द अधिक प्रचलन में रहा, क्योंकि द्रव्य शब्द ही परिवर्तनशीलता का सूचक है । जहाँ तक जैनदर्शन का प्रश्न है, आचारांग में दवी ( द्रव्य) शब्द का प्रयोग तो उपलब्ध होता है, किन्तु अपने पारिभाषिक अर्थ में नहीं, अपितु द्रवित के अर्थ में है । (जैनदर्शन का आदिकाल, पृ.21)
जैन तत्त्वदर्शन
5