SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 17
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्वीकार करने के संबंध में मतभेद था । कुछ जैन दार्शनिक काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानते थे और कुछ उसे स्वतन्त्र द्रव्य नहीं मानकर जीव एवं पुद्गल की पर्याय रूप ही मानते थे, किन्तु बाद में श्वेताम्बर एवं दिगम्बर- दोनों परम्पराओं में अस्तिकाय और द्रव्य की अवधारणाओं का समन्वय करते हुए काल को अनस्तिकाय द्रव्य के रूप में स्वतन्त्र द्रव्य स्वीकार कर लिया गया । इस प्रकार पंचास्तिकाय में काल को जोड़ने पर जैनदर्शन में षट्द्रव्य की अवधारणा विकसित हुई । अस्तिकाय की अवधारणा जैनों की मौलिक अवधारणा है । किसी अन्य दर्शन में इसकी उपस्थिति के संकेत नहीं मिलते। मेरी दृष्टि में प्राचीन काल में अस्तिकाय का तात्पर्य मात्र अस्तित्त्व रखने वाली सत्ता था, किन्तु आगे चलकर जब अस्तिकाय और अनस्तिकायऐसे दो प्रकार के द्रव्य माने गये, तो अस्तिकाय का तात्पर्य आकाश में विस्तार युक्त द्रव्य से माना गया। पारम्परिक भाषा में अस्तिकाय को बहु- प्रदेशी द्रव्य भी कहा गया है, जिसका तात्पर्य यही है कि जो द्रव्य आकाश-क्षेत्र में विस्तारित है, वही 'अस्तिकाय' है पंचास्तिकाय 1 जैसा कि जैनदर्शन में वर्तमान में जो षद्रव्य की अवधारणा है, उसका विकास इसी पंचास्तिकाय की अवधारणा से ही हुआ है। पंचास्तिकायों में काल को जोड़कर लगभग ईसा की प्रथम - द्वितीय शती में षट्द्रव्यों की अवधारणा निर्मित हुई है। जहाँ तक पंचास्तिकाय की अवधारणा का प्रश्न है, वह निश्चित ही प्राचीन है, क्योंकि उसका प्राचीनतम उल्लेख हमें 'इसिभासियाई' के पार्श्व नामक अध्ययन में मिलता है। ऋषिभाषित की प्राचीनता निर्विवाद है । पं. दलसुखभाई के इस कथन में कि 'पंचास्तिकाय की अवधारणा परवर्ती काल में बनी हैं'- इतना ही सत्यांश है कि महावीर की परम्परा में आचारांग और सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के रचनाकाल तक इस अवधारणा का उल्लेख नहीं मिलता है, क्योंकि मूल में यह अवधारणा पार्श्वापत्यों की थी । जब पार्श्व के अनुयायियों को महावीर के संघ में समाहित कर लिया गया, तो उसके साथ ही पार्श्व की अनेक मान्यताएँ भी महावीर की परम्परा में स्वीकृत की गयीं। इसी क्रम में यह अवधारणा महावीर की परम्परा में स्पष्ट रूप से मान्य हुई | भगवतीसूत्र में सर्वप्रथम यह कहा गया कि यह लोक, धर्म, अधर्म, आकाश, अजीव और पुद्गल रूप है। ऋषिभाषित में तो मात्र पाँच अस्तिकाय हैं - इतना ही निर्देश है, उनके नामों का भी उल्लेख नहीं है । चाहे ऋषिभाषित के काल में पंचास्तिकायों के नाम निर्धारित हो भी चुके हों, किन्तु फिर भी उनके स्वरूप के विषय में वहाँ कोई भी सूचना नहीं मिलती । धर्म, अधर्म आदि का जो अर्थ, आज है, वह कालक्रम में विकसित हुआ है । भगवतीसूत्र में ही हमें जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान 4
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy