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गणितीय भाषा टॉटोलाजी एवं परिभाषाएँ पर्याप्त या पूर्ण भाषा के समतुल्य मानी जा सकती है जबकि शेष भाषा व्यवहार अपर्याप्त या अपूर्ण भाषा का ही सूचक है। सर्वप्रथम उन्होंने पर्याप्त भाषा की सत्य और असत्य ऐसी दो कोटियाँ स्थापित की। उनके अनुसार अपर्याप्त की दो कोटियाँ होती हैं- (1) सत्य-मृषा (मिश्र) और (2) असत्य-अमृषा।
सत्य भाषा - वे कथन, जो वस्तु के यथार्थ स्वरूप के प्रतिपादक हैं, सत्य कहलाते हैं। कथन और तथ्य की संवादिता या अनुरूपता ही सत्य की मूलभूत कसौटी है। जैन दार्शनिकों ने पाश्चात्य अनुभववादियों के समान ही यह स्वीकार किया है कि जो कथन तथ्य का जितना अधिक संवादी होगा, वह उतना ही अघि
क सत्य माना जायेगा। यद्यपि जैन दार्शनिक कथन की सत्यता को उसकी वस्तुगत सत्यापनीयता तक ही सीमित नहीं करते हैं। वे यह भी मानते हैं कि आनुभविक सत्यापनीयता के अतिरिक्त भी कथनों में सत्यता हो सकती है। जो कथन ऐन्द्रिक अनुभवों पर निर्भर न होकर अपरोक्षानुभूति के विषय होते हैं उनकी सत्यता का निश्चय तो अपरोक्षानुभूति के विषय ही करते हैं। अपरोक्षानुभव के ऐसे अनेक स्तर हैं, जिनकी तथ्यात्मक संगति खोज पाना कठिन है। जैनदार्शनिकों ने सत्य को अनेक रूपों में देखा है। स्थानांग, प्रश्नव्याकरण, प्रज्ञापना, मूलाधार और भगवती-आराध ना में सत्य के दस भेद बताये गये हैं :- 1. जनपद सत्य, 2. सम्मत सत्य, 3. स्थापना सत्य, 4. नाम सत्य, 5. रूप सत्य, 6. प्रतीत्य सत्य, 7. व्यवहार-सत्य, 8. भाव सत्य, 9. योग सत्य, 10. उपमा सत्य अकलंक ने सम्मत सत्य, भाव सत्य और उपमा सत्य का उल्लेख किया है। मूलाचार और भगवती आराधना में योग सत्य के स्थान पर सम्भावना सत्य का उल्लेख हुआ है। सत्य के इन दस भेदों का विवेचन इस प्रकार है1. जनपद सत्य - जिस देश में जो भाषा या शब्द व्यवहार प्रचलित हो उसी के
द्वारा वस्तु तत्त्व का संकेत करना जनपद सत्य है। एक जनपद या देश में प्रयुक्त होने वाला वही शब्द दूसरे देश में असत्य हो जावेगा। बाईजी शब्द मालवा में माता के लिए प्रयुक्त होता है जबकि उत्तर प्रदेश में वेश्या के लिए। अतः बाईजी से माता का अर्थबोध मालव के व्यक्ति के लिए सत्य होगा, किन्तु
उत्तर प्रदेश के व्यक्ति के लिए असत्य। 2. सम्मत-सत्य - वस्तु के विभिन्न पर्यायवाची शब्दों का एक ही अर्थ में प्रयोग
करना सम्मत-सत्य है, जैसे - राजा, नृप, भूपति आदि। यद्यपि ये व्युत्पत्ति की दृष्टि से अलग-अलग अर्थों के सूचक हैं। जनपद-सत्य एवं सम्मत-सत्यप्रयोग
सिद्धान्त (Use Theory) से आधारित अर्थबोध से सूचक हैं। जैन ज्ञानदर्शन
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