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________________ विचारक यह भी मानते हैं कि कथन के सत्यापन या सत्यता के निश्चय में शब्द द्वारा उत्पन्न मानस प्रतिबिम्ब में तुलना होती है। यद्यपि एकांत वस्तुवादी दृष्टिकोण यह मानेगा कि ज्ञान और कथन की सत्यता का निर्धारण मानस प्रतिबिम्ब की तथ्य या वस्तु से अनुरूपता के आधार पर होता है। यहाँ यह स्मरण रखना होगा कि यह अनुरूपता भी वस्तुतः मानस प्रतिबिम्ब और वस्तु के बीच न होकर शब्द निर्मित मानस प्रतिबिम्ब और परवर्ती इन्द्रिय अनुभव के आधार पर होता है। यहाँ यह स्मरण रखना होगा कि यह अनुरूपता भी वस्तुतः मानस प्रतिबिम्ब और वस्तु के बीच न होकर शब्द निर्मित मानस प्रतिबिम्ब और परवर्ती इन्द्रिय अनुभव के द्वारा उत्पन्न मानस प्रतिबिम्ब के बीच होती है, यह तुलना दो मानसिक प्रतिबिम्बों के बीच है, न कि तथ्य और कथन के बीच। तथ्य और कथन दो भिन्न स्थितियाँ हैं। उनमें कोई तुलना या सत्यापन सम्भव नहीं है। शब्द वस्तु के समग्र प्रतिनिधि नहीं, संकेतक हैं और उनकी यह संकेत सामर्थ्य भी वस्तुतः उनके भाषायी प्रयोग (Convention) पर निर्भर करती है। हम वस्तु को कोई नाम दे देते हैं और प्रयोग के द्वारा उस "नाम" में एक ऐसी सामर्थ्य विकसित हो जाती है कि उस "नाम" में श्रवण या पाठन से हमारे मानस में एक प्रतिबिम्ब खड़ा हो जाता है। यदि उस शब्द के द्वारा प्रत्युत्पन्न वह प्रतिबिम्ब हमारे परवर्ती इन्द्रियानुभव से अनुरूपता रखता है, हम उस कथन को - "सत्य" कहते हैं। भाषा में अर्थ बोध की सामर्थ्य प्रयोगों के आधार पर विकसित होती है। वस्तुतः कोई शब्द या कथन अपने आप में न तो सत्य होता है और न असत्य This is a table - यह कथन अंग्रेजी भाषा के जानकार के लिए सत्य या असत्य हो सकता है, किन्तु हिन्दी भाषा के लिए न तो सत्य और न असत्य। कथन की सत्यता और असत्यता तभी सम्भव होती है, जबकि श्रोता को कोई अर्थ बोध (वस्तु का मानस प्रतिबिम्ब) होता है, अतः पुनरुक्तियों और परिभाषाओं को छोड़कर कोई भी भाषायी कथन निरपेक्ष रूप से न तो सत्य होता है और न असत्य। किसी भी कथन की सत्यता या असत्यता किसी सन्दर्भ विशेष में ही सम्भव होती है। जैन दर्शन में कथन की सत्यता का प्रश्न जैन दार्शनिकों ने भाषा की सत्यता और असत्यता के प्रश्न पर गंभीरता से विचार किया है। प्रज्ञापनासूत्र(पनवन्ना) में सर्वप्रथम भाषा को पर्याप्त भाषा और अपर्याप्त भाषा ऐसे दो भागों में विभाजित किया है। पर्याप्त भाषा वह है जिसमें अपने विषय को पूर्णतः निर्वचन करने की सामर्थ्य है और अपर्याप्त भाषा वह है जिसमें अपने विषय का पूर्णतः निर्वचन, सामर्थ्य नहीं है। अंशतः, सापेक्ष एवं अपूर्ण कथन अपर्याप्त भाषा का लक्षण है। तुलनात्मक दृष्टि से पौर्वात्य परम्परा की 150 जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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