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जैन दर्शन में ज्ञान का प्रामाण्य और कथन की सत्यता
समकालीन पाश्चात्य दर्शन में भाषा-विश्लेषण का दर्शन एक स्वतन्त्र विधा के रूप में विकास हुआ और आज वह एक सबसे प्रभावशाली दार्शनिक सम्प्रदाय के रूप में अपना अस्तित्त्व रखता है । प्रस्तुत शोधनिबन्ध का उद्देश्य मात्र यह दिखाना है कि पाश्चात्य दर्शन की ये विधाएँ जैन दर्शन में सहस्त्राधिक वर्ष पूर्व किस रूप में चर्चित रही हैं और उनकी समकालीन पाश्चात्य दर्शन में किस सीमा तक निकटता है।
ज्ञान की सत्यता का प्रश्न
सामान्यतया ज्ञान के प्रामाण्य या सत्यता का अर्थ ज्ञान की ज्ञेय विषय के साथ समरूपता या संवादिता है । यद्यपि, ज्ञान की सत्यता के सम्बन्ध में एक दूसरा दृष्टिकोण - स्वयं ज्ञान का संगतिपूर्ण होना भी है, क्योंकि जो ज्ञान आन्तरिक विरोध से युक्त है, वह भी असत्य माना गया है। जैन दर्शन में वस्तु स्वरूप को अपने यथार्थ रूप में अर्थात् जैसा वह है उस रूप में जानना अर्थात् ज्ञान का ज्ञेय (प्रमेय) से अव्यभिचारी होना ही ज्ञान की प्रामाणिकता है। यहाँ यह प्रश्न भी महत्त्वपूर्ण है कि ज्ञान की इस प्रामाणिकता या सत्यता का निर्णय कैसे होता है ? क्या ज्ञान स्वयं
अपनी सत्यता का बोध देता है या उसके लिए किसी अन्य ज्ञान ( ज्ञानान्तर ज्ञान ) की अपेक्षा होती है ? अथवा ज्ञान की प्रामाणिकता के लिए ज्ञान और ज्ञेय की संवादिता ( अनुरूपता) को देखना होता है? पाश्चात्य परम्परा में ज्ञान की सत्यता के प्रश्न को लेकर तीन प्रकार की अवधारणाएँ हैं - (1) संवादिता सिद्धान्त; (2) संगति सिद्धान्त और (3) उपयोगितावादी (अर्थक्रियाकारी) सिद्धान्त । भारतीय दर्शन में वह संवादिता का सिद्धान्त परतः प्रामाण्यवाद के रूप में और संगति-सिद्धान्त स्वतः प्रामाण्यवाद के रूप में स्वीकृत हैं । अर्थक्रियाकारी सिद्धान्त को परतः प्रामाण्यवाद की ही एक विशेष विधा कहा जा सकता है। जैन दार्शनिकों ने इस सम्बन्ध में किसी ऐकान्तिक दृष्टिकोण को न अपनाकर माना कि ज्ञान के प्रामाण्य या सत्यता का निश्चय स्वतः और परतः दोनों प्रकार से होता है । यद्यपि, जैन दार्शनिक यह मानते हैं कि ज्ञान के प्रामाण्य और अप्रामाण्य की उत्पत्ति का आधार (कसौटी) ज्ञान स्वयं न होकर ज्ञेय है । प्रमाणनयतत्वालोक में वादिदेवसूरि
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जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान
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