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________________ है कि धारावाहिक स्मृति आदि ज्ञान अधिगतार्थक पूर्वार्थक है और इन्हें सामान्यता अप्रमाण समझा जाता है। यदि इन्हें अप्रमाण मानते हो तो (तुम्हारा) सम्यगर्थ निर्णयरूप लक्षण अतिव्याप्त हो जाता है? प्रतिपक्ष के इस प्रश्न का उत्तर आचार्य हेमचन्द्र ने कहा था कि यदि धारावाहिक ज्ञान और स्मृति प्रमाण है तो फिर प्रमाण के लक्षण में अपूर्व या अनधिगत पद निरर्थक हो जाता है। पं. सुखलालजी का कथन है कि “श्वेताम्बर आचार्यो में हेमचन्द्र की खास विशेषता यह है कि उन्होंने गृहीतग्राही और ग्रहीष्यमाणग्राही में समत्व दिखाकर सभी धारावाहिक ज्ञानों में प्रामाण्य का जो समर्थन किया है, वह विशिष्ट है। यही कारण है कि हेमचन्द्र ने अपने प्रमाण-लक्षण में अपूर्व या अनधिगत पद की उभावना नहीं की है। संदर्भ - 1. प्रमाणमीमांसा, सम्पादक पं. सुखलालजी, प्रस्तावना, पृ.16 2. वही, पृ.17. 3. वही, पृ. 16-17. 4. वही, भाषा-टिप्पणानि, पृ. 1-143 तक. 5. प्रमाण स्वपराभासि ज्ञान बाधविवर्जितम्-न्यायातवार, 1. 6. प्रमाणमविसंवादि ज्ञानमर्थक्रियास्थितिः - प्रमाणवार्तिक, 2/1 7. प्रमाणमविसंवादि ज्ञानम् - अष्टशती/ अष्टसहनी. पृ. 175. 8. (अ) अनधिगतार्थाधिगमलक्षत्त्वात् - वही. (ब) स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम् - परीक्षामुख, 1/1 9. प्रमाणमीमांसा (पं. सुखलालजी), भाषाटिप्पणनि, पृ. 16. 10. ज्ञातव्य है कि प्रो. एम.ए. ढाकी के अनुसार 'न्यायावतार' सिद्धसेन की रचना नहीं हैं, जैसा कि पं. सुखलालजी ने मान लिया था, अपितु उनके अनुसार यह सिद्धर्षि की M.A. Dhaky's article "The Date and Author of Nyayavatara, 'Nirgrantha'Shardaben Chimanbha Educational Research Centre Ahmedabad Vol. 1 11. प्रमाण-मीमांसा (पं. सुखलालजी,) भाषाटिप्पणनि, पृ. 7. 12. वही (मूलग्रन्थ और उसकी स्वोपज्ञ टीका) 1/1/3, पृ. 4. 13. वही, भाषाटिप्पणनि, पृ. 11. 14. देखें, वही. पृ. 12-13. 15. वही (मूलग्रन्थ और उसकी स्वोपज्ञ टीका), 1/1/4, पृ. 4-5. 16. वही, भाषाटिप्पणानि, पृ.14. 30 जैन ज्ञानदर्शन 145
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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