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पंचेन्द्रियसमनस्क (संज्ञी) जीव तो ढाई द्वीप से बाहर भी होते हैं। अतः मेरी दृष्टि में मनःपर्यायज्ञान स्वमन की पर्यायों अर्थात् मनोदशाओं का ज्ञान है। वह आत्म सजगता या अप्रमत्तता की अवस्था है। यह ज्ञाता-द्रष्टाभाव में आत्मरमणता की स्थिति है। अतः जैन दर्शन में यह माना गया है कि तीर्थंकर दीक्षा ग्रहण करते ही मनःपर्यायज्ञान प्राप्त कर लेते हैं। मनःपर्यायज्ञान के भेद
___मनःपर्यायज्ञान के दो भेद हैं - ऋजुमति और विपुलमति। यद्यपि अपने विषय आदि की अपेक्षा से मनःपर्यायज्ञान में भेद नहीं है, फिर भी चित्तवृत्ति की सरलता और व्यापकता की अपेक्षा से या अपने विषय की अपेक्षा से उसमें भेद है। ऋजुमति मनःपर्यायज्ञान चित्त की सरल वृत्तियों को जानता है या सरल मनोभावों को जानता है, संक्लिष्ट मनोभावों को नहीं। ऋजुमति मनःपर्यायज्ञान की अपेक्षा विपुलमति का विषय अधिक व्यापक होता है और वह मन के संक्लिष्ट परिणामों को भी जानता है। अतः एक अपेक्षा से इन दोनों मनःपर्यायज्ञानों चित्तवृत्ति सरलता या विशुद्धि की अपेक्षा से अन्तर है। एक अन्य अपेक्षा से इन दोनों में ज्ञान की स्पष्टता की अपेक्षा भी अन्तर होता है। केवलज्ञान
कर्म सिद्धान्त की अपेक्षा से ज्ञान के दो प्रकार है- 1. क्षायोपशमिक और 2. क्षायिक। मतिश्रुत आदि चारों ज्ञान क्षायोपशमिक हैं, जबकि केवल ज्ञान क्षायिक है। क्षायिक होने के कारण यह ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अंतराय इन चार धाती कर्मो का पूर्णतः क्षय होने पर ही होता है, अतः निरावरण और पूर्णज्ञान है। अनन्त और पूर्णज्ञान होने से इसमें न तो किसी प्रकार अपूर्णता या कमी होती है और न इसे किसी प्रकार के अन्य साधनों की अपेक्षा होती है, अतः यह ज्ञान निरपेक्ष या असहाय होता है। ज्ञानावरण आदि धाती कर्मों का पूर्णक्षय होने पर ही यह ज्ञान होता है, अतः पूर्णतः शुद्ध भी होता है। केवलज्ञान सभी ज्ञानों में सर्वश्रेष्ठ ज्ञान है। जैन दर्शन की मान्यता है किसी व्यक्ति में पांचों ज्ञानों मे से मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्यायज्ञान - ये चारों ज्ञान एक साथ हो सकते हैं, किन्तु केवलज्ञान तो अकेला ही होता है। केवलज्ञान होने पर अन्य ज्ञानों की अपेक्षा ही नहीं होती है। केवलज्ञान होते ही इन चारों ज्ञानों की स्थिति वैसी ही हो जाती है, जैसे सूर्य के उदित होते ही चन्द्र और तारागणों के प्रकाश की कोई अपेक्षा नही रह जाती है, उनका प्रकाश गौण हो जाता है। केवलज्ञान को असहाय कहा है। अर्थात् इस ज्ञान के लिए किसी प्रकार के ज्ञानों या ज्ञान के साधनों की अपेक्षा नहीं होती है। दूसरे, केवलज्ञान अनंत, पूर्ण एवं अपर्यवसित ज्ञान होता है। यह ज्ञान जैन ज्ञानदर्शन
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