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________________ फिर भी चिन्त्यमान मन में चिन्त्यपदार्थ की जो आकृतियाँ बनती है, मनपर्यायवान उन्हीं आकृतियों को जो पौद्गलिक मनोवर्गणाओं से बनती है, उनको जानता है वह वस्तु को सीधे न जानकर वस्तु के मनोगत आकार को जानता है । उसका मनोआकृति का यह ज्ञान अपरोक्ष है, फिर भी उस आकृति की आधारभूत वस्तु का ज्ञान तो परोक्ष ही है, फिर भी इतना सत्य है कि मनःपर्यायज्ञान का विषय रूपी मूर्त द्रव्य ही है, अमूर्त द्रव्य नहीं । क्योंकि द्रव्यमन में निर्मित ये आकृतियाँ भी सक्ष्य मनोवर्गणाओं से ही बनती है । मनःपर्यायज्ञान स्व के मन की पर्यायों का जानता है या पर ( दूसरों) के मन की पर्यायों को जानता है । यह प्रश्न ही विवादास्पद रहा है। जैन ग्रन्थों में सामान्य रूप से यह कथन प्रचलित है कि मनःपर्यायज्ञानी न केवल अपने मन की पर्यायों (अवस्थाओं) को जानता है, अपितु दूसरों के मन की पर्यायों को भी जानता है। योगसूत्र (पतंजलि) एवं मञिझम निकाय में परचित्त (दूसरों के चित) के ज्ञान की सम्भावना भी मानी गई है। इसी आधार पर जैन परम्परा में मनः पर्यायज्ञान के द्वारा पर चित्त ज्ञान पर बल दिया गया किन्तु मेरी दृष्टि में यह मान्यता उचित नहीं है। क्योंकि मनःपर्यायज्ञान के लिए जो अप्रयन्त संयत मुनि होने की जो शर्त लगाई गई है। वह शर्त आवश्यक इसलिए है कि अप्रमत्त संयत मुनि ही अपनी मनोवृत्तियों को सम्यक् प्रकार से जान सकता है, प्रमत्त व्यक्ति नहीं । मनः पर्यायज्ञान के लिए जो अप्रयन्त संयत मुनि होने की जो शर्त लगाई गई है। वह शर्त आवश्यक इसलिए है कि अप्रमत्त संयत मुनि ही अपनी मनोवृत्तियों को सम्यक् प्रकार से जान सकता है, प्रमत्त व्यक्ति नहीं है । मनःपर्यायज्ञान के लिए अप्रमत्ता की शर्त यही सूचित करती है कि मनः पर्यायज्ञान स्वचित्त या अपने ही मन की पर्यायों का ज्ञान है । मनःपर्यायज्ञानी स्वचित्त का ज्ञाता होता है, अतः वह आत्म-सजग या अप्रमत्त होता है। दूसरे मनःपर्यायज्ञान के लिए जो आत्मसजगता या अप्रमत्तता की स्थिति इसलिए भी आवश्यक मानी गई है, जो मनो-विकल्पों का ज्ञाता - द्रष्टा होता है, वह मनोविकल्पों का कर्ता नहीं होता है । मनः पर्यायज्ञान आत्मसजगता स्व बोध की अवस्था है, अतः उसमें 'पर' के विकल्पयुक्त चित्त जानने की प्रवृत्ति सम्भव नहीं है। चाहे एक बार परम्परागत मान्यता के अनुसार यह मान भी ले कि मनःपर्यायज्ञानी में परचित्त को जानने की शक्ति होती है, किन्तु उसमे परचित्त को जानने प्रयत्न नहीं होता है। अतः मेरी दृष्टि मनःपर्यायज्ञान अपने मन की पर्यायों अर्थात् मानसिक अवस्थाओं या चित्तवृत्तियों का ज्ञान है उसका सम्बन्ध स्वचित्त ही से है । परम्परागत दृष्टि से उसे परचित्त का ज्ञान मानने पर तो उसमें अनेक बाधाएँ आती है । यदि वह परचित्त का ज्ञान है तो उसका क्षेत्र ढाई द्वीप से बाहर भी माना जाना था, क्योंकि जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान 124
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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