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________________ 92 आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण ग्रहण कर कुगति का पात्र होता है । आचार्य ज्ञानसागर महाराज नय समूह में अवगाहन करते हुए, उसको अधिकरण बनाते हुए कुशल लेखक एवं वक्ता के रूप में सिद्ध हुए थे । वक्ता यदि विरक्त होता है तो नय की शोभा है । यहाँ इस प्रसंग में एक बात और ध्यान में आती है कि उपरोक्त प्रकार ही शुद्धोपयोग और स्वरूपाचरण के विषय में नियोजन किया जा सकता है । तथा विभक्ति के अनुसार अर्थ करने पर इनकी विभिन्न गुणस्थानों में विद्यमानता विषयक भ्रान्ति का निवारण हो सकता है । जैसे 'शुद्धाय उपयोगः शुद्धोपयोगः' अर्थात् शुद्ध के लिए जो उपयोग, ज्ञानदर्शन की प्रवृत्ति । अभी उपयोग निर्मल हुआ नहीं है लक्ष्य मात्र है । निचले गुणस्थानों में इसी प्रकार संभव है । 'शुद्धश्चासौ उपयोगः' शुद्धोपयोगः अर्थात् पूर्ण शुद्ध रागादि विकार से रहित शुक्लध्यानरूप उपयोग यह श्रेणी आरोहण की अवस्था में होता है । जिज्ञासुगण उपरोक्त प्रकार नय निरूपण के विशाल आयाम को हृदयंगम करने हेतु आचार्य ज्ञानसागरजी के वाङ्मय में सभी कारकों से अर्थ ग्रहण करते हुए उदाहरण आदि को संग्रहीत कर सकते हैं । 40. आचार्य ज्ञानसागर महाराज के नय निरूपण का सारांश प. पू. आचार्य ज्ञानसागर महाराज ने निश्चय-व्यवहार नय निरूपण अपने वाङ्मय में प्रचुरता से किया है । प्रस्तुत प्रबन्ध में इसका दिग्दर्शन संक्षेप में ही कराया गया है । यहाँ सारांश प्रस्तुत है। जीवादिक पदार्थों के परिज्ञान के लिए प्रमाण और नयों की उपयोगिता है । जिस प्रकार हम किसी वस्तु को हर पहलू में घुमा-फिरा कर देखते हैं उसी प्रकार विभिन्न नयों (Points of view) या दृष्टिकोणों से समन्वित रूप में हमें जीवादि प्रयोजनभूत तत्त्वों को जानना आवश्यक है । वस्तु अनन्त धर्मात्मक है । अतः किसी एक ही नय द्वारा उसका सर्वांगीण ज्ञान अशक्य है । हाँ, 'अर्पितानर्पित सिद्धेः' इस वचन के अनुसार किसी नय को किसी समय में मुख्य और किसी को गौण करना पड़ता है । नयों को चक्षु की उपमा दी गई है । प्रयोजनवश हम एक आँख से काम लेते हैं तो अन्य समय में दूसरी से । कौनसा नय किस अवस्था में प्रयोजनीय है इस विषय में पू. आ. श्री ने हमें निर्देश दिया है कि जो शुद्धनय तक पहुँच कर श्रद्धावान्, ज्ञानवान् एवं चारित्रवान् हो गये हैं अर्थात् परमभावदर्शी हैं उनको तो शुद्धद्रव्य का कथन करने वाला शुद्धनय जानने योग्य है किन्तु जो अपरम भाव में (गृहस्थ की अपेक्षा पाँचवें गुणस्थान तक तथा मुनि की अपेक्षा छठवें व सातवें गुणस्थान) स्थित हैं उनके लिए व्यवहार नय का उपदेश किया गया है।
SR No.006273
Book TitleNay Nirupan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivcharanlal Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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