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________________ आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण 93 व्यवहार नय को समयसार जैसे शुद्ध अध्यात्म एवं विशुद्ध निश्चय-रत्नत्रयात्मक ध्यान विषयक ग्रन्थों में अभूतार्थ भी कहा गया है, जिसका अर्थ असत्यार्थ भी किया गया है। इसका मतलब यही है कि जब योगी शुद्धोपयोग की दशा में पहुँचता है उसकी अपेक्षा यह अप्रयोजनभूत है । इसका आशय यह नहीं है कि यह सर्वथा असत्यार्थ है । अपने विषय की अपेक्षा अथवा प्रमाण की दृष्टि में वह भी उतना ही भूतार्थ है जितना कि निश्चय । आचार्य अमृतचन्द्र ने आत्मख्याति में बतलाया है कि जब कमल को जल-सम्पृक्त अवस्था की दृष्टि से देखते हैं तो 'कमल जल में हैं' यह व्यवहार कथन भूतार्थ है । जब जल को गौण करके मात्र कमल को देखते हैं तो 'कमल जल से भिन्न हैं' यह निश्चय कथन भूतार्थ है । वास्तविकता यह है कि कोई नय न तो सर्वथा भूतार्थ है और न अभूतार्थ । प्रयोजनवश ही किसी नय की सत्यार्थता होती है प्रयोजन निकल जाने पर वह अभूतार्थ या असत्यार्थ कहलाता है । आचार्य ज्ञानसागरजी ने एक उदाहरण प्रस्तुत किया है कि जैसे 'अर्हन्तनाम सत्य है' यह वाक्य शवयात्रा में तो भूतार्थ है किन्तु वरयात्रा में असत्यार्थ । यदि वरयात्रा में इसका प्रयोग करें तो अशुभ, निन्दा, अकल्याण सूचक है, बोलनेवाला दण्ड का पात्र है। निश्चय नय की भूतार्थता के विषय में वर्तमान में कोई विवाद नहीं है । व्यवहार नय को ही हेय कहकर मोक्षमार्ग का लोप करने का प्रयास अवश्य दृष्टिगत होता है । यदि व्यवहार नय सर्वथा अभूतार्थ होता तो उसे अनेकान्त सम्यक् प्रमाण के भेदों में कैसे स्थान मिलता और कुन्दकुन्द स्वामी भी उसका प्रयोग क्यों करते, अकेले निश्चय नय के बल पर समयसार को व्याख्यायित कर लेते । एक आँखवाले को काना न कहा जाता । दोनों आँखवाले को भी सूझता नहीं कहा जाता । पुनश्च, नय की सर्वथा सर्वस्व नहीं है । प्रज्ञाचक्षु के समान प्रमाण ही सबका नियन्ता है । अन्धे या नेत्र बन्द करनेवालों की मूक ज्ञान प्रवृत्ति कोई कम महत्व की नहीं है । दोनों ही नय बकवादी है । आनन्द का अनुभव बोलने में नहीं है रसास्वादन में है । इसी हेतु योगीजन आत्मसमाधि में तल्लीन होने का सतत प्रयत्न करते हैं । नय चाहे व्यवहार हो या निश्चय, सभी नयवादों को परसमय घोषित किया गया है । अतः निश्चय नय भी स्वसमय रूप नहीं है । वह भी स्वसमय होने के लिए है । स्वसमय अर्थात् अभेद रत्नत्रय रूप परम समाधि में लीन होने की स्थिति में सभी नय प्रमाण एवं निक्षेप अस्तगत ही रहते हैं। निश्चय नय-परक अध्यात्मग्रन्थों का पात्र वस्तुतः संसार, शरीर, भोगों से अन्त:करण से विरक्त एवं बाह्यरूप से निर्ग्रन्थ साधु ही है । इसका अर्थ यह नहीं है कि इन ग्रन्थों को गृहस्थों को पढ़ना ही नहीं चाहिए अपितु ये ग्रन्थ मुनिपरक उपदेशत्व को ध्यान में रखकर ही अध्येय है । इस सावधान से अध्यात्म का हार्द समझने में चूक न होगी । व्यवहार नय बाहरी फोटो के समान पदार्थ के बाह्य रूप का चित्रण करता है, निश्चय नय एक्स-रे के फोटो के समान अन्तरंग एवं निर्लिप्त रूप का चित्रण करता है । दोनों ही
SR No.006273
Book TitleNay Nirupan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivcharanlal Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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