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________________ 82 आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण ___ उपरोक्त निरूपण से अनेकों भ्रान्तियाँ नष्ट कर क्या गृहस्थ, क्या साधु, सभी को आ. ज्ञानसागरजी महाराज ने दिशा-निर्देश किया है । निश्चयाभास एवं व्यवहाराभास, दोनों को.. . ही अनिष्ट घोषित किया है । मात्र बाह्यक्रिया से मोक्षमार्ग नहीं बना न अन्तरङ्ग धारणा की निर्मलता में सहायक क्रिया को ही वस्तुतः धर्म में सम्मिलित किया और कहा भी है. 'ज्ञानक्रियाभ्याम् मोक्षः ।' अन्यत्र भी - मग्नाः कर्मनयावलम्बनपरा ज्ञानं न जानन्तिी मग्ना ज्ञाननयैषिणोऽपि यदतिस्वच्छन्द मन्दोद्यमा ॥ विश्वस्योपरि ने तरन्ति सततं ज्ञानं भवन्तः स्वयं । ये कुर्वन्ति न कर्म जातु न वशं यान्ति प्रमादस्य च । - समयसार कलश 111 यहाँ स्पष्ट है कि एकान्त कर्मनयावलम्बी (व्यवहाराभासी) एवं एकान्त ज्ञाननयावलम्बी (निश्चयाभासी) दोनों ही डूबते हैं । समयसार की टीका में आ. ज्ञानसागरजी ने वस्तुस्वरूप के विभिन्न पार्यों के अवलोकन एवं निर्णय हेतु जो निश्चय-व्यवहार निरूपण किया है वह सम्पूर्ण रूप में नय-सृष्टि, नयदृष्टि एवं नय-समष्टि इस त्रिविधता में दृष्टिगत होता है । वे आर्षपरम्परा मान्य नय विवक्षा को अपने ढंग से उदाहरण सहित सृजित करते हुए प्रकट हुए हैं । उनकी नय दृष्टि अत्यन्त विशाल है, उसमें स्पष्टता है, आग्रह रहितता है । उन्होने प्रायः अपने वाङ्मय में सभी नयों निश्चय-व्यवहार के भेद-प्रभेदों को प्रस्तुत किया है वे समष्टि को परमावश्यक मानते हैं। वे नयों की एकता में अनेकता एवं अनेकता में एकता संजोए हुए हैं । आवश्यकता है उनके तत्त्वामृत का रसास्वादन करने की। 36. कर्मबन्ध स्वरूप आ. कुन्दकुन्द ने समयसार में बन्धाधिकार तथा कर्तृकर्माधिकार में अध्यात्म गवेषणा के परिप्रेक्ष्य में नय विवक्षा को स्पष्ट करते हुए कर्मबन्ध स्वरूप और प्रक्रिया को उल्लिखित किया है । प्रवचनसार में भी यह सन्दर्भ है । आ. ज्ञानसागरजी महाराज ने कुन्दकुन्द के मन्तव्य को आत्मख्याति एवं तात्पर्यवृत्ति को पल्लवित करते हुए सम्यक् प्रकट किया है उनका यह विवरण अवश्य ही दृष्टव्य है । अपनी न कहकर पू. ज्ञानसागर महाराज को ही अवतरित करूँगा। समयसार गाथा नं. 148 का विशेषार्थ - "जीव और पुद्गलकर्म को एक बन्धपर्याय के रूप में देखा जाये तब तो भिन्नता का अभाव है वहाँ जीव में कर्म बँधते भी हैं और उसे छूए हुए भी हैं, यह व्यवहार नय का कथन है; किन्तु जीव और पुद्गलकर्म को भिन्न द्रव्य के रूप में देखा जाये तो वे दोनों भिन्न-भिन्न पृथक् ही हैं । इसलिए जीव में कर्मबद्ध भी नहीं हैं और उससे छुए हुए भी नहीं हैं, यह निश्चय नय का पक्ष है किन्तु आत्मा का वास्तविक स्वरूप तो इन दोनों बद्धाबद्ध से भिन्न प्रकार का केवल चेतनत्व को लिए अमूर्त स्वरूप है ।"
SR No.006273
Book TitleNay Nirupan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivcharanlal Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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