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आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण
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बना रहेगा जीव की मुक्ति नहीं कही जा सकती । श्री तीर्थंकर केवली के भी जब-तक तीर्थंकर प्रकृति का उदय बना रहता है तब अरहन्त से सिद्ध नहीं हो पाते । एवं कर्मत्व की अपेक्षा ( अथवा निश्चय नय की अपेक्षा) दोनों एक हैं फिर भी सर्वथा दोनों को एक ही मान बैठना भूल से खाली नहीं है अपितु दोनों में बड़ा भारी अन्तर है । इसको समझने के लिए उदाहरण, जैसे एक आदमी को अजीर्ण हो रहा है और रोग बढ़ता है परन्तु अगर पाचक चूर्ण की एक खुराक खाता है तो वह उसके अजीर्ण को भी पचा डालता है और आप भी पच जाया करता है उसी प्रकार शुभकर्म भी आत्मा के किये दुष्कर्मों को निवृत्त करते हुए आप ( ही ) निवृत्त होता है एवं आत्मा के लिए मुक्ति का साधन बनता है किन्तु अशुभ कर्म संसार वृद्धि कारक होता है जैसा कि गाथा नं. 145 की आत्म - ख्याति में लिखा है- " शुभाशुभौ मोक्षबन्धमार्गों तु प्रत्येकं केवलं जीवपुद्गल मयात्वादनेकौ " अर्थात् शुभकर्म जीव को बलदायक होने से मोक्षमार्ग कहा जाता है किन्तु अशुभ कर्म पुद्गल को बलदायक होने से बन्ध का मार्ग, संसार वृद्धि का कारण है इसीलिए दोनों भिन्न-भिन्न हैं अर्थात् शुभकर्म आत्मा के हित की वांछा को लेकर किया जाता है और अशुभ कर्म शरीर के वशवर्त्ति रूप से यह भेद है । याद रहे मिथ्यादृष्टि का पुण्यकर्म शुभ न होकर शुभाभास होता है ।" (पृष्ठ 74-75 ) " शुद्धोपयोग में जहाँ तक किंचित् लगने न पाये तबतक शुभकर्म करते ही रहना चाहिए । ( निश्चय की अप्राप्ति में व्यवहार उपादेय है ) खुद ऋषभदेव भगवान को भी जब सत्कर्म करते हुए तिरासी लाख पूर्व बीत चुके । उनकी आयु का चौरासीवां अंश सिर्फ बाकी रहा तो इन्द्र ने विचार किया कि भगवान अगर इसी तरह करते रहे तो कैसे काम होगा, अतः उसने नीलांजना का संयोग मिलाया जिससे कि प्रतिबुद्ध होकर भगवान शुद्धोपयोग के साधनभूत मुनि मार्ग में लग गये । इस पर जो कोई यह कहते हैं कि निमित्त. कुछ भी नहीं करता, उन लोगों को भी देखना चाहिए । अस्तु, जबकि जिनशासन की यह स्पष्ट आज्ञा है कि आज इस कलिकाल में पैदा हुए जीव को शुद्धोपयोग हो ही नहीं सकता तो फिर उसके लिए प्रयास करना और उसकी धुन में शुभकर्म को छोड़कर उच्छृंखल हो जाना ठीक नहीं । अपितु घोर मिथ्यादृष्टिपन है । निश्चय - सम्यग्दर्शन तो दूर रहा तत्त्वार्थ श्रद्धानरूप स्थूल (व्यवहार) सम्यग्दर्शन से भी भ्रष्ट होकर रहता है ।
शङ्का - जब कि शुद्धोपयोग आजकल होता नहीं और मुनिपन का लक्ष्य शुद्धोपयोग है तो मुनि बनना व्यर्थ ही रहा ।
उत्तर
शुद्धोपयोग नहीं होता किन्तु जैसा शुभोपयोग रूप धर्म - ध्यान आरम्भ और परिग्रह रहित मुनि होने से होता है वैसा गृहस्थपन में फँसे हुए ममतावाले जीव को नहीं हो पाता तथा मुनि होने की शास्त्र में आज्ञा भी है; किन्तु मुनि होना तभी सार्थक है जबकि तादृश पात्रता हो, कुछ स्थायी निर्मम भाव हो, शरीर भी सुदृढ़ हो इत्यादि । हाँ, ख्याति, लाभ, पूजा वगैरह को लेकर बनावटी वैराग्य से मुनि बनना, दुनिया को धोखे से डालना और अपना भी बुरा करना है। उससे तो अच्छा यही कि श्रावक बनकर धर्म साधन करें किन्तु सच्चा वैराग्य हो तो दुनियादारी की झंझट से दूर होकर निर्ग्रन्थ बनना और अपने मनुष्य जीवन को सफल करना ही चाहिए ।"
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