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आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण
67 "जहाँ तक शुद्धभाव की प्राप्ति नहीं हुई वहाँ तक जितना अशुद्धनय का कथन है उतना यथापदवी प्रयोजनवान है । जहाँ तक यथार्थ ज्ञान श्रद्धान की प्राप्ति रूप सम्यग्दर्शन की प्राप्ति नहीं हुई हो वहाँ तक तो जिनसे यथार्थ उपदेश मिलता है ऐसे जिनवचनों को सुनना, धारण करना तथा जिनवचनों को कहनेवाले श्री जिन-गुरु की भक्ति, जिन-बिम्ब के दर्शन इत्यादि व्यवहार मार्ग में प्रवृत्त होना प्रयोजनवान है और जिन्हें श्रद्धान-ज्ञान तो हुआ है किन्तु साक्षात् प्राप्ति नहीं हुई उन्हें पूर्व कथित कार्य, परद्रव्य का आलम्बन छोड़ने रूप अणुव्रत-महाव्रत का ग्रहण, समिति गुप्ति और पञ्च परमेष्ठी का ध्यानरूप प्रवर्तन तथा उसी प्रकार प्रवर्तन करनेवालों की संगति एवं विशेष जानने के लिए शास्त्रों का अभ्यास करना इत्यादि व्यवहार मार्ग में स्वयं प्रवर्तन करना और दूसरों को प्रवर्तन कराना ऐसे व्यवहार नय का उपदेश अङ्गीकार करना प्रयोजनवान है । व्यवहार नय को कथञ्चित् असत्यार्थ कहा गया है किन्तु कोई उसे सर्वथा असत्यार्थ जानकर छोड़ दे तो वह शुभोपयोग रूप व्यवहार को ही छोड़ देगा और उसे शुद्धोपयोग की साक्षात् प्राप्ति तो नहीं हुई है इसलिए उल्टा अशुभोपयोग में ही आकर, भ्रष्ट होकर चाहे जैसी स्वेच्छारूप प्रवृत्ति करेगा तो वह नरकादिक गति तथा परम्परा से निगोद को प्राप्त होकर संसार में ही भ्रमण करेगा । इसलिए शुद्धनय का विषयभूत साक्षात् जो शुद्धात्मा है उसकी प्राप्ति जब तक न हो तब तक व्यवहार भी प्रयोजनवान है। ऐसा स्याद्वाद मत में श्री गुरुओं का उपदोश है ।" 32. व्यवहार से निश्चय एवं निश्चय से व्यवहार
आ. ज्ञानसागरजी महाराज ने समयसार की गाथा संख्या 63-65 का विशेषार्थ लिखते हुए कहा है -
"बात यह है कि शुद्धनय तो शुद्धात्मा के अनुभव स्वरूप है । यहाँ गुणस्थानादि न झलक कर मात्र ज्ञाता - दृष्टापन ही झलकता है और उसी का अनुमनन और चिन्तन होता है। किन्त जहाँ ध्यानस्वरूप निश्चय नय का अवलम्बन छटा कि साधक को कर्तव्य
र्तव्यशीलता पर आकर कि "मैं कौन हूँ और मुझे क्या करना चाहिए ? मैं मुनि हूँ और छठे गुणस्थान की अवस्था में हूँ अतः मुझे स्तवन आदिक षट् आवश्यक करना चाहिए इत्यादि विकल्पों को अपनाना होता है । किन्तु व्यवहार सम्पन्न कर फिर ध्यान-स्वरूप निश्चय पर पहुँचता है । वहाँ थक जाने पर फिर व्यवहार में आता है । इस प्रकार अभ्यास दशा में साधक को निश्चय से व्यवहार और व्यवहार से निश्चय पर बार-बार जाना-आना होता है । इसी को लक्ष्य रखकर आचार्य देव ने दोनों नयों का व्याख्यान किया है और दोनों को अपने-अपने स्थान पर उपयोगी दिखलाया है । इस प्रकार अभ्यास द्वारा अशुद्धता को दूर कर शुद्धता पर आना यह प्रत्येक साधक का मुख्य कर्त्तव्य है ।"
आगम भाषा में इसी को सातवें से छटे तथा छटे से सातवें गुणस्थान का परिवर्तन कहा है । परमार्थ से तो अर्थात् परम शुद्ध निश्चय की दृष्टि से तो यतः ज्ञानचेतना का सद्भाव बारहवें गुणस्थान में अध्यात्म में निरूपित किया है अतः निश्चय-मोक्षमार्ग अथवा कारण समयसार वहीं प्रकट माना है । (पंचस्तिकाय)