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आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण
पू. महाराजजी ने अजीवाधिकार गाथा 51 की टीका में एतद्विषयक पं. जयचन्दजी का भावार्थ प्रस्तुत किया है, प्रयोजनीय है
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"परमार्थ नय तो जीव को शरीर और राग-द्वेष-मोह से भिन्न कहता है । यदि इसी का एकान्त किया जावे तब शरीर तथा राग-द्वेष- मोह पुद्गलमय ठहरे और तब पुद्गल के घात से हिंसा नहीं हो सकती और राग-द्वेष-मोह से बन्ध नहीं हो सकता इस प्रकार परमार्थ से (निश्चय नय के एकान्त से) संसार और मोक्ष दोनों का अभाव हो जायेगा । ऐसा (इसलिए) एकान्तरूप वस्तु का स्वरूप नहीं है । अवस्तु का श्रद्धान, ज्ञान और आचरण मिथ्या अवस्तुरूप ही है इसलिए व्यवहार का उपदेश न्यायप्राप्त है । इस प्रकार स्याद्वाद से दोनों नयों का विरोध मेटकर श्रद्धान करना सम्यक्त्व है ।"
आ. अमृतचन्द्रजी का निम्न कलश मैं यहाँ अवश्य उद्धृत करना चाहूँगा । उभयनयविरोधध्वंसिनि स्यात्पदाङ्के
जिनवचसि रमन्ते ये स्वयं वान्तमोहाः ।
सपदिसमयसार ते परमज्योतिरुच्चै
रनवमनयपक्षाक्षुण्ण मीक्षन्त एव ॥4॥
जिनवचन स्याद्वादरूप है, जहाँ दो नयों (निश्चय - व्यवहार) के विषय का विरोध है, जैसे कि जो सत्रूप होता है वह असत् रूप नहीं होता, जो एक होता है वह अनेक नहीं होता, जो नित्य होता है वह अनित्य नहीं होता, जो भेदरूप होता है वह अभेदरूप नहीं होता, जो शुद्ध होता है वह अशुद्ध नहीं होता इत्यादि नयों के विषयों में विरोध हैवहाँ जिनवचन कथञ्चित् विवक्षा से सत्-असत् रूप, एक अनेकरूप, नित्य- अनित्यरूप, भेदअभेदरूप, शुद्ध-अशुद्धरूप जिस प्रकार विद्यमान वस्तु है उसी प्रकार कहकर विरोध मिटा देता है, असत् कल्पना नहीं करता । जिनवचन द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दोनों नयों में, प्रयोजनवश शुद्ध द्रव्यार्थिक नय को मुख्य करके उसे निश्चय कहते हैं और अशुद्ध द्रव्यार्थिकरूप पर्यायार्थिक को मुख्य करके व्यवहार कहते हैं, ऐसे जिनवचन में जो पुरुष रमण करते हैं
इस शुद्ध आत्मा को यथार्थ प्राप्त कर लेते हैं अन्य सर्वथा एकान्तवादी सांख्यादिक उसे प्राप्त नहीं कर पाते, क्योंकि वस्तु सर्वथा एकान्त पक्ष का विषय नहीं है तथापि वे एक ही धर्म को ग्रहण करके वस्तु की असत्य कल्पना करते हैं जो असत्यार्थ है, बाधासहित मिथ्यादृष्टि है ।
31. व्यवहार भी उपादेय
पूर्व में हमने पू. आ. ज्ञानसागरजी के व्यवहार और निश्चय की भूतार्थता और अभूतार्थता विषयक निरूपण को प्रस्तुत किया है वहाँ व्यवहार नय को यथा- पदवी सत्यार्थ व प्रयोजनवान् निरूपित किया गया है इसके समर्थन में पं. जयचन्दजी छाबड़ा का स्पष्टीकरण व गाथा नं. 12 का भावार्थं उद्धृत है,