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आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण
किंच भूत शब्द का अर्थ संस्कृत भाषा के विश्वलोचन कोष में जिस प्रकार सत्य बतलाया है उस प्रकार उसका अर्थ सम भी बतलाया है । अतः भूतार्थ का अर्थ जब कि सम होता है अर्थात् सामान्य धर्म को स्वीकार करनेवाला है तो अभूतार्थ का अर्थ विषम अर्थात् विशेषता को कहनेवाला अपने आप हो जाता है जिससे व्यवहार नय अर्थात् पर्यायार्थिक नय और निश्चयनय अर्थात् द्रव्यार्थिक नय इस प्रकार अर्थ अनायास ही निकल आता है। जोकि इतर आचार्यों के द्वारा भी सर्व सम्मत है ।"
यहाँ हम पाठकों का ध्यान आ. अमृतचन्द्रजी के उदाहरण पर आकर्षित करना चाहेंगे उन्होंने कहा है कि जब हम जल से सम्पृक्त अवस्था की दृष्टि से देखते हैं तो यह (व्यवहार कथन) सत्यार्थ है कि 'कमल जल में है' और जब हम जल से असम्पृक्त दशा (जल को अपनी दृष्टि से ओझल कर) को देखते हैं तो 'कमल जल में है' यह कथन असत्यार्थ है वहाँ निश्चय नय का कथन 'कमल जल में नहीं है' सत्यार्थ है।
__ जिस प्रकार लहरों को दृष्टिगत करने पर यह लक्षित होता है कि 'समुद्र अशांत है' यह सत्यार्थ है और जब लहरों से दृष्टि हटाकर मात्र समुद्र पर लक्ष्य होता है तो समुद्र शान्त है यह कथन सत्यार्थ है, उसी प्रकार दोनों दृष्टियाँ निश्चय और व्यवहार अपने-अपने विषय की दृष्टि से सत्यार्थ है और अपने-अपने अविषय या अप्रयोजन की दृष्टि से असत्यार्थ हैं। नय तो शब्द है उनमें भूतार्थता-अभूतार्थता स्वयं की कुछ नहीं है वह तो वस्तुतः प्रयोजन की ही भूतार्थता - अभूतार्थता है, नयों को व्यर्थ ही गेहूँ के साथ घुण के पिस जाने जैसी बात है । पू. आ. ज्ञानसागरजी ने आ. जयसेन स्वामी के इस कथन “व्यवहार नयः .......
नः अधस्तनवर्णिक - सवर्णलाभवत्प्रयोजनवान भवति ।" आदि पर विशेषार्थ का कथन कि : है, गौर करें पृष्ठ 16 (गाथा 14) - "आचार्य के कथन का तात्पर्य यह है कि संयत मनुष्य जब अभेदात्मक परम समाधि में तल्लीन होकर रहता है उस समय वह शुद्ध निश्चयनय का आश्रय करनेवाला है किन्तु उससे नीची अवस्था में, क्या संयत, क्या संयतासंयत क्या असंयत सम्यग्दृष्टि ये सभी व्यवहार नय में प्रवृत्त रहते हैं उसके बिना उसका निर्वाद नहीं हो सकता एवं क्षयोपशम ज्ञान का धारी संयमी मनुष्य भी जब तक समाधि में स्थिर है तब तक वह शुद्धोपयोगी है किन्तु इतर काल में वह शुभोपयोगी होता है पर संयता-संयत और (अविरत) सम्यग्दृष्टि तो शुभोपयोगी ही होते हैं किन्तु उनकी तो शुद्धोपयोगी तक पहुँच भी नहीं है ।" गाथा नं. 14 की पूरी संस्कृत टीका आत्मख्याति और तात्पर्यवृत्ति पठनीय
___ इस विषय में हम सराग-वीतरागचारित्र के प्रकरण में भी वर्णन कर चुके हैं कुछ पुनरावृत्ति या पिष्टपेषण हो तो पाठक क्षमा करें । विवशता यह है कि जैसे आटा पीसते समय कुछ रवा या दलिया बनकर आटा मोटा हो जाता है तो पुनः उसको फिर गेहूँ के साथ मिलाकर पीसना अनिवार्य हो जाता है उसी प्रकार हमें आ. ज्ञानसागरजी महाराज के अवशिष्ट आशय का स्पष्टीकरण करने हेतु कुछ पूर्व कथित विषय या शब्दों का सहारा लेना आवश्यक हो गया है । कारण यह है कि उनके विभिन्न ग्रन्थों में नवीन-नवीन समाधानों की झड़ी लगी हुई प्राप्त होती है । पुनश्च यथा ग्वालिनी मक्खन निकालने हेतु दही को