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आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण आराधक-आराधना - मंगलाचरण गाथा के विशेषार्थ में आ. ज्ञानसागरजी महाराज ने आराधना और उसके नय दृष्टि से कर्त्ता की चर्चा करते हुए कहा है कि "आराधक तो हम संसारी छद्मस्थ हैं और आराध्य श्री सिद्ध भगवान् हैं । .......... आराधना दो प्रकार की है (1) व्यवहार-आराधना (2) निश्चय-आराधना । वचन विकल्पात्मक व्यवहार-आराधना है और निर्विकल्प भाव में तन्मय होकर शुद्धात्मा का ध्यान करना निश्चय-आराधना है । छठे गुणस्थान तक व्यवहार-आराधना होती है और सातवें से आगे निश्चय-आराधना है । इन दोनों आराधनाओं के द्वारा छद्मस्थ आत्मायें अपने पूर्वोपार्जित कर्मों को क्रमशः ढीला करते हुए नष्ट कर देती है ।" यहाँ स्पष्ट है कि व्यवहार नय के द्वारा मान्य वचनात्मक आराधना भी निर्जरा का समर्थ कारण है । यहाँ यह कहना भी अप्रासंगिक न होगा कि परम शुद्धनय की अपेक्षा तो आराध्य-आराधक भाव ही नहीं है ।
30. निश्चय व्यवहार स्वरूप की व्यापक चर्चा समयसार पृष्ठ 9, विशेषार्थ के अन्तर्गत -
"दर्शन, ज्ञान और चारित्र को भिन्न-भिन्न कर बतलाया गया है वह सद्भूत व्यवहार नय से बतलाया गया है । सद्भूत व्यवहार नय का काम है कि जो गुण-गुणों के साथ अभिन्न होकर रहते हैं उनको भिन्न-भिन्न कर बतलाये ।"
अगली गाथा - "आचार्य देव ने यहाँ व्यवहार की उपयोगिता बतलाई है कि व्यवहार के बिना निश्चय का कथन नहीं किया जा सकता और न उसे समझाया ही जा सकता है । अतः निश्चय को समझने के लिए व्यवहार का उपदेश परमावश्यक है । इसके साथ यह भी बतलाया है कि व्यवहार नय का उपदेश देने के अधिकारी भी मुनि है जो कि निश्चय और व्यवहार इन दोनों नयों के तत्त्वों को जाननेवाले हैं।"
इसके समर्थन में आ. अमृतचन्द्रजी का निम्न श्लोक प्रस्तुत है - मुख्योपचारविवरणनिरस्तदुस्तरविनेयदुर्बोधाः व्यवहारनिश्चयज्ञाः प्रवर्तयन्ते जगति तीर्थम् ॥पु. सि. 4 ॥
गाथा नं. 13 विशेषार्थ - "यहाँ तात्पर्यवृत्तिकार ने इस गाथा का अर्थ दो प्रकार से किया है । एक तो यह कि व्यवहार नय तो अभूतार्थ है और निश्चयनय भूतार्थ है जो कि अमृतचन्द्र आचार्य द्वारा भी सम्मत है; किन्तु इन्हीं आचार्य ने गाथा के 'दु' शब्द को लेकर दूसरे प्रकार से भी अर्थ किया है कि व्यवहार नय भूतार्थ व अभूतार्थ दो प्रकार है, इसी प्रकार निश्चय नय भी शुद्ध-निश्चय नय और अशुद्ध-निश्चय नय के भेद से दो प्रकार है उसमें भूतार्थ को आश्रय करनेवाला सम्यग्दृष्टि होता है ।
___ यहाँ पर भूतार्थ शब्द का अर्थ सत्यार्थ और अभूतार्थ का अर्थ असत्यार्थ किया है किन्तु यहाँ पर असत्यार्थ का अर्थ सर्वथा विस्तार नहीं लेना चाहिए, किन्तु 'अ' का अर्थ ईषत् (अल्प) लेकर व्यवहार नय अभूतार्थ अर्थात् तात्कालिक प्रयोजनवान् है ऐसा लेना चाहिए। जैसा कि स्वयं जयसेनाचार्य ने भी अपने तात्पर्यार्थ में बतलाया है ।