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________________ आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण 43 अर्थ अशुभ से निवृत्ति और शुभ में प्रवृत्ति को चारित्र जानो वह व्रत, समिति, गुप्ति रूप है इस चारित्र को जिनेन्द्र भगवान ने व्यवहार नय से चारित्र कहा है । सारांश यह है व्यवहार नय अशुभ से हटकर शुभ प्रवृत्ति को (भले ही वह रागमय हो ) चारित्र कहता है । इसको अन्य शब्दों में व्यवहार संयम, क्रिया, आचरण कह सकते हैं । इस समस्त प्रकरण को हम आ. ज्ञानसागरजी के शब्दों के द्वारा आपके सम्मुख रखते हैं, इसमें उपयोगी एतद्विषयक सामग्री पाठक को मिलेगी । प्रवचनसार पृष्ठ 3 – “सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान सहित जो सम्यक्चारित्र है वह सराग और वीतराग के भेद से दो प्रकार है । वीतराग चारित्र से तो साक्षात् निर्वाण की प्राप्ति होती है किन्तु सरागचारित्र से देवेन्द्र पद प्राप्त क्रके तदुपरान्त मनुष्य भव में चक्रवर्ती या बलदेव वगैरह की राजविभूति को प्राप्त करके फिर मुनि होकर मुक्ति प्राप्त करता है एवं सरागचारित्र परम्परा मुक्ति को प्राप्त करके फिर मुनि होकर मुक्ति प्राप्त करता है एवं सरागचारित्र परम्परा मुक्ति का कारण माना गया है ।" ज्ञातव्य है कि शुभोपयोग एवं शुद्धोपयोग नाम भी इन चारित्रों के स्वीकृत किए गये । तथा शुभोपयोग और शुद्धोपयोग दोनों ही धर्म निरूपित किये गये हैं । अपेक्षा व्यवहार एवं निश्चय की है। देखिये, निम्न पद्य में शुद्धोपयोगी और शुभोपयोगी दोनों को धर्मात्मा कहा गया है । . प्रवचनसार पृष्ठ 5 "शुद्धोपयोगवान् शुभोपयोगवान् प्रतिपद्यते । मुक्तिं स्वर्ग-सुखं स शासनम् ॥29॥ " मतलब यह है कि शुद्ध या शुभ उपयोग की व्यवस्था में आत्मा अपने आत्मतत्त्व को स्वीकार किये हुए रहता है किन्तु अशुभ की दशा में आत्म-भाव, आत्मतत्त्व से दूर हटकर उत्पथ को अपनाये हुए रहा करता है। शुद्ध या शुभोपयोगी जीव धर्मात्मा होता है और अशुभोपयोगी जीव अधर्मी, पापी, पाखण्डी होता है । इसीलिए वह नरकादिक दुःखों का भाजन होता है ।" यहाँ हम आ. कुन्दकुन्द चारित्राधिकार की गाथा उद्धृत करना प्रासंगिक समझते हैं, समयम्हि सुहोवजुत्ता य होंति सुद्धवजुत्ता सुद्धवुजुत्ता अणासवा सेस 11651 जिन शासन में श्रमण दो प्रकार के होते हैं, शुद्धोपयोगी और शुभोपयोगी । उनमें शुद्धोपयोगी अनास्रव हैं और शेष अर्थात् शुभोपयोगी आस्रव सहित । यहाँ शुभोपयोगी भी श्रमणों का अस्तित्व स्वीकार किया है और वे धर्म परिणत हैं । ये दो भेद श्रमणों के हैं अर्थात् गृहस्थ के नहीं । गृहस्थ तो शुभोपयोगी तक हो सकता है । प्रवचनसार की दसवीं गाथा तो तात्पर्यवृत्ति टीका में आचार्य जयसेन ने उल्लिखित किया है कि प्रथम गुणस्थान लेकर तृतीय तक घटता हुआ अशुभोपयोग, चौथे से छठवें तक बढ़ता हुआ शुद्धोपयोग का साधक शुभोपयोग तथा सातवें से बारहवें तक बढ़ता हुआ शुद्धोपयोग तथा तेरहवें, चौदहवें समणा तेसिं - - धर्मात्मा इति सासवा
SR No.006273
Book TitleNay Nirupan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivcharanlal Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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