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आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण चारित्र वास्तव में धर्म है और समता भाव का आचरण चारित्र है एवं मोह और क्षोभ से रहित आत्मा का परिणाम ही शम या समता भाव है । यहाँ पूर्ण वीतराग भाव ही परिणित किया गया है । क्योंकि दर्शनमोह एवं चारित्रमोह के उदय से रहित ही मोह-क्षोभ से अतीत परिणाम होता है । वीतराग चारित्र ही निश्चय - चारित्र है आचार्यश्री ने इसे 'आत्मनो परिणामों' कहकर परनिरपेक्ष एवं अभिन्न कर्त्तृकर्म भावरूप शुद्ध पारिणामिक परिणमन निरूपित किया है । उसे शुद्धोपयोग भी कहा है ।
सरागचारित्र का निरूपण करते हुए आ. ने उल्लिखित किया है व्रतानि समितीरक्षा निरोधानि च पञ्चधा । कचलुञ्चनमस्नानमाचेलक्यमिलाशयम्
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अदन्तधावनं स्थित्या भोजनं चैकधा दिने । विशुद्धयावश्यकषट्कं भो मुने मूलगुणनिमान् ॥10॥
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हिन्दी पद्यानुवाद व्रतसमितीन्द्रिजय आवश्यक लोच भू शयन पर अदन्तोन "अस्नान एक भोजन दिन में उत्थित जिनवरजी ने अट्ठाइस ये मूलगुण कहे हैं साधु वही होता है जिसके इनमें कमी न हो पाई ॥5॥
मुक्ति । भुक्ति । भाई ।
- 5 व्रत, 5 समिति, 5 इन्द्रियविजय, 6 आवश्यक, केशलोंच, दिगम्बरत्व, अस्नान, भूशयन, अदन्तधावन, खड़े होकर भोजन, एकबार भोजन । ये मुनि के 28 मूलगुण व्यवहारचारित्र या सरागचारित्र रूप हैं ।
चारित्राधिकार में ही आ. ज्ञानसागरजी का यह श्लोक साधु के सरागचारित्र का निरूपण
करता है
(चारित्राधिकार)
सन्मतज्ञानसन्देशः जिनपूजाद्युपदेशो ऽप्यस्तुचर्या
शिष्यग्रहणपोषणम् सरागिणाम्
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- समीचीन धर्म का उपदेश, शिष्यों को ग्रहण करना, उनका पोषण करना, जिनेन्द्र भगवान की पूजा का उपदेश यह सरागचारित्र के धारी श्रमणों की चर्चा है । अन्य भी वन्दना, धर्मचर्चा, साधुसेवा आदि भी सरागचारित्र है । यहाँ जिसे सराग कहा है उसे आगम में व्यवहारचारित्र संज्ञा है दोनों एकार्थवाची हैं
दृष्टव्य है,
असुहादो विणिवित्ती पवित्ती य जाण चारित्त । वदसमिदि गुत्ति एवं ववहारणयादु जिण भणियं ॥
सुहे
वृहद्रव्य संग्रह
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