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आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण सप्तप्रकारत्वमुशन्तिभोक्तुः फलानि च त्रीण्यधुनोपयुक्तम् । पृथक्कूतौ व्यस्त-समस्ततातः न्यूनाधिकत्वं न भवत्यथातः ॥7॥
अर्थ - जैसे हरड़, बहेड़ा और आँवला इन तीनों का अलग-अलग स्वाद है । द्विसंयोगी कहने पर हरड और आँवले का मिला हुआ एक स्वाद होगा, हरड और बहेड़े का मिला हुआ दूसरा स्वाद होगा और बहेड़े और आँवले का तीसरा स्वाद होगा । तीनों को एक साथ मिलाकर खाने पर एक चौथी ही जाति का स्वाद होगा । इस प्रकार मूल रूप हरड़, बहेड़ा
और आँवला के एक संयोगी तीन भंग, द्विसंयोगी तीन भंग और त्रिसंयोगी एक भंग ये सब मिलकर सात भंग जैसे हो जाते हैं और उसी प्रकार अस्ति, नास्ति, अवक्तव्य ये तीन और इनके द्विसंयोगी तीन भंग और त्रिसंयोगी एक भंग ये सब मिलकर सात भंग हो जाते है। ये भंग न इससे कम होते हैं और न अधिक होते हैं । ऊपर लिखा ही है कि चूंकि प्रश्न भी सात ही संभव है अतः उनके उत्तर स्वरूप भंग भी सात ही हैं ।
भावार्थ - अस्ति 1, नास्ति 2, अवक्तव्य 3, अस्ति-नास्ति 4, अस्ति-अवक्त्य 5, नास्ति-अवक्तव्य 6, अस्तिनास्ति-अवक्त्य 7 । ये सातों भंग प्रत्येक वस्तु के यथार्थ स्वरूप का निरूपण करते हैं । अतः उस अपेक्षा को प्रकट करने के लिए प्रत्येक भंग के पूर्व स्यात् (कथञ्चित, किसी अपेक्षा से) पद का प्रयोग किया जाता है । इसे ही स्यावाद रूप सप्तभंगी कहते हैं । इस स्यावाद रूप सप्तभंग वाणी के द्वारा ही वस्तु के यथार्थ स्वरूप का कथन संभव है अन्यथा नहीं।
इसी सर्ग के श्लोक संख्या 21 में आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज ने सहेतुक रूप से भगवान के अनेकान्त शासन के आश्रय लेने की स्वीकृति स्वयं की है देखें,
समस्ति नित्यं पुनरप्यनित्यं यत्प्रत्यभिज्ञाख्यविदा समित्यम् । कुतोऽन्यथा स्याद् व्यवहारनाम सूक्तिं पवित्रामिति संश्वयामः ॥21॥
द्रव्य की अपेक्षा (निश्चय नय से) वस्तु नित्य है और पर्याय की अपेक्षा (व्यवहार नय से) वही अनित्य है । यदि निश्चय नय को ही एकान्त रूप से मानकर वस्तु को सर्वथा नित्य कूटस्थ माना जाय तो उसमें अर्थक्रिया परिणमन नहीं बनती है और यदि (व्यवहार नय को ही एकान्त से स्वीकार कर) सर्वथा क्षणभंगुर माना जाय तो उसमें यह वही है इस प्रकार का प्रत्यभिज्ञान नहीं हो सकता । अतएव (दोनों नयों को सापेक्ष स्वीकार कर) वस्तु को कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्य मानना पड़ता है । अन्यथा लोक-व्यवहार कैसे संभव होगा. इसलिए व्यवहार के संचालनार्थ हम भगवान महावीर के पवित्र अनेकान्तवाद का सहारा लेते हैं।
आ. ज्ञानसागरजी महाराज ने अपने गंभीर चिन्तन, मनन एवं अभीक्षण ज्ञानोपयोग के द्वारा जैनदर्शन की गहराइयों का अवगाहन किया था। वे नय विशारद थे, न्याय, जिसे प्रमाणशास्त्र, हेतुशास्त्र, आन्विशिकी अथवा तर्क भी कह सकते हैं, के पंडित थे । वीरोदय का उन्नीसवां और बीसवाँ सर्ग तो आ. कुन्दकुन्द के प्रवचनसार और आ. समन्तभद्र की आप्तामीमांसा का निचोड़ ही विदित होता है । जैनेतर दर्शनों के एकान्त का निरसन एवं स्वमतस्थापन