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________________ आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण 39 __ "एकस्मिन् वस्तुनि प्रश्नवशाद् दृष्टेनेष्टेन च प्रमाणेनाविरुद्धा विधिप्रतिषेधकल्पना सप्तभंगी ।" प्रश्न के अनुसार एक वस्तु में प्रमाण से अविरुद्ध विधिप्रतिषेध धर्मों की कल्पना सप्तभंगी है । प्रश्न सात ही संभव हैं अत: भंग भी सात होते हैं । आचार्य ज्ञानसागरजी ने भी पूर्वाचार्यों के उपरोक्त प्रकार के अभिप्रायः को ही अपनी सप्तभंगी की प्ररूपणा में प्रस्तुत किया है । श्रोता को इसका भाव ठीक से हृदयंगम हो एतदर्थ सटीक उदाहरणों का अवलम्बन लिया है । ज्ञातव्य है, रेखैकिका नैवलघुर्नगुर्वी लध्व्याः परस्या भवति स्वदुर्वी । गुर्वी समीक्ष्याय लघुस्तृतीयां वस्तुस्वभावः सुतरामितीयान ॥5॥ अर्थ - कोई एक रेखा न स्वयं छोटी और न बड़ी है । यदि उसी के पास उससे छोटी रेखा खींच दी जाय तो वह पहली रेखा बड़ी कहलाने लगती है और यदि उसी के दूसरी ओर बड़ी रेखा खींच दी जाय तो वही छोटी कहलाने लगती है । इस प्रकार वह पहली रेखा छोटी और बड़ी दोनों रूपों को अपेक्षाभेद से धारण करती है । बस, वस्तु का स्वभाव भी ठीक उसी प्रकार का जानना चाहिए। इस प्रकार अपेक्षा विशेष से वस्तु में अस्तित्व धर्म सिद्ध होते हैं प्रत्येक वस्तु स्वचतुष्टय, अपने द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा अस्ति रूप है और पश्चतुष्टय की अपेक्षा नास्तिरूप यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि निश्चय-नय की दृष्टि से तो वस्तु अभेद एक है उसमें तो पदार्थ के सप्तभंग दृष्टिगोचर भी नहीं होते । समस्त सप्तभंगी व्यवहार नय के आश्रित ही है । वह व्यवहार नय सद्भूत व्यवहार है जिसमें कुछ पराश्रित प्रकरण अथवा पर की अपेक्षा होने से उपचारित नय का भी समावेश है । ऊपर आचार्यश्री ने मुख्य दो धर्म (भंग) अस्तित्व और नास्तित्व निरूपित किए हैं वे भी अपेक्षा से । अतः प्रत्येक भंग अपेक्षा से होने से उसके पहले स्याद् पद जोड़ना अभीष्ट है । यहाँ हम आचार्य महाराज के शब्दों को विस्तार से उद्धृत करना चाहेंगे । ताकि पूरे सप्तभंगी नय का स्वरूप पाठक को अवगत कराया जा सके। "सन्ति स्वभावात्परतो न यावास्तस्यादवाग्गोचरकृतप्रभावाः । सहेत्यतस्तत्रितायात्प्रयोगाः सप्तात्र विन्दन्ति कलावतो गाः ॥6॥ अर्थ - जैसे जौ (यव) अपने यवरूप स्वभाव से 'है' उस प्रकार गेहूँ आदि के स्वभाव (चतुष्टय भाव) से 'नहीं' है । इस प्रकार यव में अस्तित्व और नास्तित्व ये दोनों धर्म सिद्ध होते हैं । यदि इन दोनों ही धर्मों को एक साथ कहने की विवक्षा की जाय, तो उनका कहना संभव नहीं है, अत: उस यव में अवक्तव्य रूप तीसरा धर्म भी मानना पड़ता है । (बिना अपेक्षा के अवक्तव्य है जैसे रेखा को छोटी या बड़ी कहना अवक्तव्य है) । इस प्रकार वस्तु में अस्ति, नास्ति और अवक्तव्य ये तीन धर्म सिद्ध होते हैं । इनके द्विसंयोगी तीन धर्म और त्रिसंयोगी एक धर्म इस प्रकार सब मिलाकर सात धर्म सिद्ध हो जाते हैं । ज्ञानीजन इन्हें ही सप्तभंग के नाम से कहते हैं ।
SR No.006273
Book TitleNay Nirupan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivcharanlal Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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