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________________ 26 आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण वीतराग शासन में कथित जीवादि नव-तत्त्वों की विकल्प से जो सच्ची श्रद्धा है सो पुण्य का कारण है क्योंकि उसमें भेद का और पर का लक्ष्य हैं। पर लक्ष्य धर्म का कारण नहीं है इत्यादि तथा उनके समयसार प्रवचन पृष्ठ 437 पंक्ति 19 में ही लिखा है कि नवतत्त्व के भेद से - विकल्प से आत्मा का विचार करना सो शुभराग है, व्यवहार है उसमें धर्म नहीं है और हम लोग तो उपयुक्त गाथा का भी ऐसा ही अर्थ लगाया करते हैं कि - निश्चयार्थं मुक्त्वा अर्थात् मतलब की चीज एक निश्चय (अभेद) रत्नत्रय ही है उसी का आश्रय लेना, उसी से कर्मक्षय होते हैं । उसके सिवाय व्यवहार मार्ग को अपनाना तो किसी भी हालत में ठीक नहीं है प्रत्युत बन्ध का ही कारण है । उत्तर भैयाजी, क्या कह रहे हो यह तुम्हारा कहना तो सभी जैनाचार्यों के विरुद्ध पड़ता है । खुद इस समयसारजी में ही पहले बताया जा चुका है कि निश्चय तो तीर्थफल रूप है और व्यवहार तीर्थ अर्थात् उसकी प्राप्ति का उपाय । इन्हीं श्री कुन्दकुन्द ने चारित्तं खलु धम्मो ऐसा कहकर उस चारित्र के अणुव्रत और महाव्रत रूप भेद करते हुए उन दोनों धर्म बतलाया है देखो इनका चारित्रपाहुड ग्रन्थ तथा च इन्हीं ने अपने रयणसार ग्रन्थ में- 'दाणं पूजा मुक्खो सावयधम्मो ण सावया तेण विणा ।' ऐसा लिखा है । शङ्का - अणुव्रत और महाव्रतों को जब कि तत्त्वार्थसूत्र में शुभबन्ध का कारण बनाकर आस्रव के वर्णन में लिया है तो फिर उन्हें धर्म कैसे कहा जा सकता है । धर्म तो मोक्ष का कारण होता है और आस्रव संसार का । उत्तर ठीक है परन्तु उसी तत्त्वार्थसूत्र में पञ्च समितियों को संवर में लिया है जो समितियां भी तो शुभरूप ही होती हैं। जब समितियां संवर हैं तो व्रत जो होते हैं समिति गुप्ति वगैरह सहित ही होते हैं उन्हें छोड़कर तो हो नहीं सकते । व्रत अवयवी और समिति आदि उनके अवयव हैं । अतः यह अर्थ हुआ कि वही व्रत आस्रव रूप भी हैं और संवर रूप भी । निरर्गलता का निरोधक होने से तो संवर रूप किन्तु किंचित् सत्प्रवत्ति रूप होने से प्रशस्तास्रव रूप भी जैसे कि जल से धोया हुआ कपड़ा, बिना धुले कपड़े से तो साफ होता है किन्तु साबुन से धुले हुए कपड़े की अपेक्षा मैला भी । वैसे छठे गुणस्थान की अपेक्षा सेतो पञ्च गुणस्थान के परिणाम आस्रव रूप किन्तु चतुर्थ गुणस्थान की अपेक्षा संवर अतः धर्म रूप - शङ्का धर्म तो वस्तुस्वभाव का नाम है । आत्मा का स्वभाव तो निर्विकल्प एक अखण्ड ज्ञायक है । अणुव्रत महाव्रतादि भेद विकल्प रूप आत्मा का धर्म कैसे हो सकता है । - उत्तर - ठीक है आत्मा के स्वभाव का नाम ही धर्म है किन्तु आत्मा का स्वभाव सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रय है जो कि आत्मा के साथ भी और आपस में भी कथञ्चित् भिन्न और कथञ्चित् अभिन्न है । आत्मा गुणी है और ये उसके गुण हैं। आश्रय इन तीनों का अभिन्न एक आत्मा है परन्तु अर्थक्रिया इन तीनों की भिन्नभिन्न हैं एवं वस्तु का स्वरूप कथंचित् भेदोभेदात्मक है । वस्तु का स्वभाव अभेदरूपी हो सो बात जैनशासन में तो मान्य नहीं है। निर्विकल्प ध्यान समाधि में भी सर्वथा निर्विकल्पपना
SR No.006273
Book TitleNay Nirupan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivcharanlal Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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