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आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण । भिन्न भिन्न यों मानि विवेचक लोग चलें इन पर क्रम से, जब तक पहँच न पावें निश्चय मोक्षमार्ग पर स्वश्रम से ।
और छोड़ि, निज में रुचि निज का ज्ञान लीनता भी निज में, यो निश्चय पथ पावे यति होकर के कर्म हने क्षण में 102॥
ऊपर लिखे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये तीनों आत्मा के स्वभाव है . इसलिए वस्तुतः आत्मा से अभिन्न होते हैं फिर भी मुमुक्षु इनको लक्षणादि से भिन्न-भिन्न मानकर इन्हें प्राप्त करने और इनमें निष्णात होने की भावना रखता है अथवा यह पर है इसे छोड़ना और अपने आपको स्वीकार करना इस प्रकार विवेचनात्मक चेष्टा होती है तब तक के परिणमन को व्यवहार-मोक्षमार्ग कहा जाता है और इस प्रकार के अपने पुरुषार्थ के द्वारा और सब-कुछ को छोड़कर अपने आपके आत्मस्वरूप में रुचि प्राप्त करते हुए
और सब-कुछ को भुलाकर अपने आपको ही जानते हुए अपने आप में ही तल्लीन हो रहता है जहाँ पर पहुँच कर इस जीव की ऐसी अवस्था हो लेती है उस क्षण के इसके भाव को निश्चय-मोक्षमार्ग कहते हैं । उर समय यह आत्मा सच्चा यति होकर कुछ ही देर में अपने पूर्वकृत कर्मों को खपा डालता है। मतलब व्यवहार-मोक्षमार्ग की सम्पत्ति नियम से निश्चय-मोक्षमार्ग की जनक है और निश्चय-मोक्षमार्ग की पूर्ति होने से उत्तरक्षण में मुक्ति हो जाती है । यहाँ स्वामी कुन्दकुन्दाचार्यजी की मूल गाथा इस प्रकार से है कि -
मोत्तूण णिच्छयटुं ववहारेण विदुसा पवदृन्ति । परमट्ठमस्सिदाण दु जदीण कम्मक्खको अणिदो-1256॥ __ अर्थते गमयते प्राप्यत इत्यर्थः, निश्चयस्तदात्मकः स चासावर्थश्च तं मुक्त्वा अर्थात् प्राप्त करने योग्य निश्चय-मोक्षमार्ग को लक्ष्य में न लेकर उसे साध्य न बनाकर सिर्फ व्यवहारमोक्षमार्ग में प्रवृत्ति करनेवाले लोग समझदार नहीं होते क्योंकि व्यवहार-मोक्षमार्ग तो साधन रूप है उसको प्राप्त करने का तरीका है । साधन साध्य का ही किया जाता है उसके बिना नहीं होता । (उदाहरण) उसी प्रकार निश्चय-रत्नत्रय जिससे सम्पूर्ण कर्मक्षय रूप मोक्ष की साक्षात् प्राप्ति होती है उसे भूल करके कोरे व्रत तपश्चरणादि रूप व्यावहारिक क्रिया-काण्ड में ही लगा रहे तो वह ठीक नहीं । वह तो व्रत तप न होकर बाल तप कहा जावेगा । व्यवहार भी न होकर दुर्व्यवहार एवं शुभ भी न होकर शुभाभास माना जावेगा, अधर्म ही होगा धर्म नहीं । मोक्ष का उससे कोई सम्बन्ध नहीं है । परन्तु साध्यभूत निश्चय-रत्नत्रय को लक्ष्य बनाकर उसे प्राप्त करने के लिए अपूर्ण अवस्था में साधन रूप से व्रतादि का आचरण करना शुभरूप होते हुए भी व्यवहाररूप से मोक्षमार्ग है अतएव धर्म भी है । सकल संयमी मुनि के महाव्रत ही नहीं बल्कि देश संयमी की शुभाशुभ रूप मिश्रित चेष्टा भी धर्म मानी जाती है क्योंकि धर्म की भूमिका चौथे गुणस्थान अव्रत सम्यग्दृष्टि नामक स्थान से ही शुरू हो जाती है।
शङ्का - हम तो समझते हैं कि शुभवृत्ति तो विकार भाव है वह कभी भी धर्म नहीं हो सकती । तथा वस्तुविज्ञानसार के पृष्ठ 92 पर भी (कानजी ने) ऐसा ही लिखा है देखो,