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आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण किस मनुष्य का किसके साथ तत्त्व रूप से सच्चा सम्बन्ध माना जाय । इसलिए मैं कहती हूँ कि अनेकान्त की सिद्धि अपने आप प्रकट है । बाजार में जब वस्तु सस्ती मिलती है व्यापारी उसे खरीद लेता है और जब वह महंगी हो जाती है तब ग्राहक के मिलने पर अवश्य उसे बेच देता है यही व्यापारी का कार्य है । इसलिए एक नियम पर बैठकर नहीं रहा जाता है । सखि अनेकान्त की सिद्धि तो सुतरां सिद्ध है और देख - जीर्ण ज्वरवाले पुरुष की दूध में अतिसारवाले पुरुष की दही में और रोग रहित भूखे मनुष्य की दोनों में रुचि का होना उचित ही है किन्तु उपवास करनेवाले पुरुष की उन दोनों में से किसी पर भी रूचि नहीं मानी जा सकती । इसलिए मैं कहती हूँ कि सखि, एकान्त से वस्तु तत्त्व की सिद्धि नहीं होती किन्तु अनेकान्त से ही होती है । उपरोक्त (छन्द) श्लोक नं. 4 का अर्थ - इस प्रकार प्रत्येक तत्त्व की अनन्तधर्मता प्रमाण से भली-भाँति सिद्ध होकर विलसित हो रही है । इसलिए एकान्त को मानना तो मूर्खता का स्थान है । विद्वज्जन को ऐसी एकान्तवादिता स्वीकार करने के योग्य नहीं है । किन्तु अनेकान्तवादिता को ही स्वीकार करना चाहिए, क्योंकि अनेकान्तवाद की सिद्धि प्रमाण से सिद्ध है ।"
उपरोक्त प्रसंग में आ. ज्ञानसागरजी की नय-प्रमाण निरूपण कला के सुण्दु दर्शन होते हैं । वे आगम के 'सिद्धिरनेकान्तात्' और 'अनेकान्तस्तावत् प्रमाणं' सूत्रों को ही पल्लवित करने हेतु सटीक उदाहरण प्रस्तुत करने में सिद्ध हस्त थे ।
ज्ञान प्रवृत्ति (कार्य) विषयक भ्रान्तियों के निवारणार्थ आ. श्री ने अपने वाङ्मय में अच्छा स्पष्टीकरण किया है । किन्हीं व्यक्तियों, जो निश्चयैकान्त के ज्वर से पीड़ित हैं, की ऐसी धारणा है कि ज्ञान सिर्फ अपनी आत्मा को जानता है पर को नहीं । यह बात आ. ज्ञानसागरजी के ज्ञान में थी तभी उन्होंने निम्न शंका स्वयं उपस्थित कर समाधान किया है दिशाबोध कराया है।
- सम्यक्त्वसार शतकम्, पृ.-153 __ शंका - ठीक तो है इसीलिए तो हमारे आचार्यों ने बतलाया है कि निश्चय नय से तो ज्ञान सिर्फ अपनी आत्मा को जानता है पर-पदार्थों को जाननेवाला तो व्यवहारमात्र से होता है और व्यवहार का अर्थ झूठा होता है ।
उत्तर (समाधान) - भैयाजी, जो पर को नहीं जानता है, वह अपने आपको भी नहीं जान सकता है; क्योंकि मैं चेतन हूँ। जड़ नहीं हूँ, इस प्रकार अपना विधान परप्रतिषेधपूर्वक ही हुआ करता है । ज्ञान का स्वभाव जानना है, वह अपने आपको जानता है तो पर को भी जानता है । अपने आपको आपके रूप में अभिन्नता से ज्ञातृतया वा ज्ञानतया जानता है। पर-पदार्थों को पर के रूप में अपने से भिन्न अर्थात् ज्ञेयरूप जानता है । भिन्न रूप जानने का नाम व्यवहार एवं अभिन्न रूप जानने का नाम ही निश्चय है, किन्तु जानना दोनों ही बातों में समान है जो कि ज्ञान का धर्म है और वह सर्वज्ञ में पूर्णतया प्रस्फुट हो जाता है उसी की प्राप्ति के लिए यह सारा प्रयास है ।
उपरोक्त विवेचन के सम्बन्ध में कुन्दकुन्द स्वामी की प्रस्तुत गाथा दृष्टव्य हैजाणदि पस्सदि सव्वं ववहारणयेण केवलीभगवं । केवलणाणी जाणदि णिच्छयदो चेव अप्पाणं नियमसार 159॥