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आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण
- व्यवहार नय जीव और शरीर को एक कहता है परन्तु निश्चय नय की दृष्टि में जीव और शरीर कभी भी एक नहीं है ।
आचार्य ज्ञानसागरजी ने निश्चय नय को तादात्म्य परिणति एवं उपादान का ग्राहक लिखा है यह युक्ति संगत होने के साथ आगम सम्मत भी है । आचार्य अमृतचन्द्रजी ने भी निश्चय नय से तादात्म्य को लेकर ही जीव की कर्ता-कर्म-क्रिया का निरूपण किया है
यः परिणमति स कर्ता यः परिणामों भवेन्तु तत्कर्म । या परिणतिः क्रिया सा त्रयमपि भिन्न न वस्तुतया कलश 51॥
निश्चय नय संयोग को स्वीकार नहीं करता । अतः वह तो उपादान के परिणामिक भाव का ही तो ग्राहक होगा । अशुद्ध पारिणामिक भाव को ग्रहण करनेवाला अशुद्ध निश्चय नय एवं शुद्ध पारिणामिक का ग्राहक शुद्ध निश्चय नय है ।।
व्यवहार नय भिन्न कर्ताकर्म भाव को स्वीकार करता है वह निमित्त को प्रधान कर संयोगी भावों को जीव का मानकर चलता है । उदाहरणार्थ - तीर्थंकर जिनवाणी के कर्ता हैं, कुम्भकार घड़े का कर्ता है आदि । जीव कर्म से बंधा है, राज्य करता है, इन्द्रियों से जानता है आदि । यह रूप आचार्य ज्ञानसागरजी ने व्यवहार के कार्य को बताते हुए प्रस्तुत किया है वह समीचीन है।
10. नय प्रयोग कौशल
आ. ज्ञानसागरजी न्याय विषयक विशाल समन्वित दृष्टि को अनेकान्त परिवेश में प्रकट करने के अभ्यासी थे। विविध सिद्धान्त प्रसंगों के साथ ही कथा प्रसंगों में भी उन्होंने अनेकान्त के दर्शन कर यथावसर उसे प्रस्तुत किया है । सुदर्शनोदय में पृष्ठ 91 पर उन्होंने विशिष्ट रागमय 4 छन्दों में अनेकान्त की सिद्धि कथा पात्र सखियों के वार्तालाप के माध्यम से की है । ये चार श्लोक वस्तुतः एक दर्पण की भाँति सोदाहरण अनेकान्त को सम्यब प्रति विम्बित करते हैं। विस्तार भय से मात्र अन्तिम छन्द यहाँ उद्धृत करता हूँ । हाँ, उनका हिन्दी अनुवाद पूरा लिलूँगा।
एवमनन्तधर्मता विलसति सर्वतोऽपि तन्त्वस्य । भूरास्तां खलतायास्तस्मादभिमतिरेकान्तस्य ॥
प्रसिद्धा न तु विबुधस्य सिद्धिरनेकान्तस्य ॥4॥ "हे सखि, देख अनेक धर्मात्मक वस्तु की सिद्धि स्वयंसिद्ध है अर्थात् कोई भी कथन सर्वथा एकान्त रूप सत्य नहीं है । प्रत्येक उत्सर्ग मार्ग के साथ अपवाद मार्ग का भी विधान पाया जाता है । इसलिए दोनों मार्गों से ही अनेकान्त रूप तत्त्व की सिद्धि होती है । देख एक वेश्या से उत्पन्न हुए पुत्र-पुत्री कालान्तर में स्त्री-पुरुष बन गये । पुनः उनसे उत्पन्न हुआ पुत्र उसी वेश्या के वश में हो गया अर्थात् अपने बाप की माँ से रमने लगा । इस . अठारह नाते की कथा में पिता के ही पुत्रपना स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर हो रहा है । फिर