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आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण
- 13 आत्मस्वभावं परभावभिन्नं आपूर्णमाद्यन्तविमुक्तमेकं विलीन संकल्पविकल्पजालं प्रकाशयन् शुद्धनयोऽभ्युदेति mon
समयसार कलश - आत्मस्वभाव को परभावों से भिन्न, आपूर्ण, आदि-अंत रहित, एक (अभेद) संकल्पविकल्प जाल से रहित प्रकाशित करता हुआ शुद्धनय अभ्युदय को प्राप्त होता है । यहाँ . ज्ञातव्य है कि शुद्धनय बोलता नहीं है किन्तु विकल्प सहित चिन्तन सहित है । विशेषता यह है कि वह आत्मा को निर्विकल्प अभेद स्वरूप प्रदान करने में सक्षम होता है । शुद्धात्मानुभव रूप समयसार है वह तो सभी नयपक्षों से अतिक्रान्त है । दृष्टव्य है, समयप्राभृत गाथाओं की एक-एक पंक्तियां ।। पक्खातिकंतो पुण भणिदो जो सो समयसारो 149॥ दोण्हणवि णयाणभणियं जाणदू णवरि तु समयपडिबद्धो ॥150॥
"समयप्रतिबद्ध दोनों नयों से जानता है किसी नय पक्ष से ग्रसित नहीं होता । जो पक्षातिक्रान्त है वह समयसार है ।"
आचार्य ज्ञानसागरजी ने विषय संख्या नं. 3 के अन्तर्गत उल्लेख किया है कि निश्चय नय अभेद स्थापन करता है अतः एक है यह कथन उपरोक्त समयसार कलश के अनुसार ही समीचीन है । व्यवहार को भेददर्शक अनेक बताया है वह विधिपूर्वकभवहरण व्यवहारः' इस व्युत्पत्ति से सिद्ध ही है ।
आचार्य ज्ञानसागरजी ने निश्चयनय को प्रतिषेधक और व्यवहार को प्रतिषेध्य बताया है । इसका आशय यह है कि व्यवहार नय निश्चय नय के द्वारा प्रतिषेध्य है, प्रमाण के द्वारा नहीं । क्योंकि प्रमाण के अवयव के रूप में दोनों मान्य हैं ("प्रमाणांशा नया उक्ता:") । निषेध का तात्पर्य विरोध नहीं है अपितु पूर्वापरता है । आचार्यश्री ने लिखा है कि पहले व्यवहार व बाद में निश्चय आता है । कहा भी है, "व्यवहारपूर्वको निश्चयः ।" प्रतिषेध्य होने पर भी व्यवहार निश्चय का साधक है, कहा भी है,
णो ववहारेण विणा णिच्छय सिद्धी कया वि णिहिट्ठा । साहणहेऊजम्हा तम्हा सो भणिय ववहारो ॥
- द्रव्यस्वभाव - प्रकाशक नय चक्र। ___ - व्यवहार के बिना निश्चय की सिद्धि कदापि नहीं होती । निश्चय के साधन हेतु होने के कारण ही उसे व्यवहार संज्ञा प्राप्त है । आचार्य ज्ञानसागरजी ने लिखा है कि व्यवहार निश्चय के नीचे होकर रहता है उसका अभिप्राय यह है कि निचली अवस्था (पूर्व अवस्था) में होता है और निश्चय को उत्पन्न करता है । पूर्वदशा उत्तर-दशा के सापेक्ष ही तो होगी। बिना उत्तरदशा के पूर्व कहना भी तो नहीं बनता ।
आचार्य अमृतचन्द्रजी ने तो व्यवहार को निश्चय का बीज ही कहा है । पञ्चास्तिकाय की गाथा नं. 106 की टीका में निम्न पंक्तियां अवलोकनीय हैं,