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________________ 12. - 'आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण अपने को निर्विकार कहने वाला जो है वह तो घोर मिथ्यादृष्टि है बिल्कुल झूठा है (आगे उदाहरण) ..... बस, यही निश्चय और व्यवहार का हाल है । (उदाहरणानुसार) निश्चय नय पिता की तरह है और व्यवहार नय मित्र की तरह । दोनों ही अपने विचार में सच्चे हैं न कि एक सच्चा और दूसरा झूठा । हाँ, निश्चय की दृष्टि से व्यवहार अगर गलती पर है (झूठा है) तो व्यवहार की दृष्टि में निश्चय भी झूठा है । श्री आचार्य महाराज (कुन्दकुन्द स्वामी) ने तो जगह-जगह दोनों को ही अपने-अपने विषय में उपयोगी बताया है एवं दोनों के कार्य को संक्षेप में हम यहाँ बता रहे हैं - निश्चय नय व्यवहार नय 1. द्रव्यार्थिक है। 1. पर्यायार्थिक होता है। 2. सामान्य को विषय करता है। 2. विशेष का कथन करनेवाला है । 3. अभेद स्थापन करता है अतः एक है। | 3. भेद दिखलाता रहता है, अनेक है । 4. मूक है गूंगा है। बोलनेवाला है निश्चय के स्वरूप को भी व्यवहार ही बतलाया करता है और अपने आप को भी। 5. प्रतिषेधक हैं क्योंकि व्यवहार के 5. प्रतिषेध्य है निश्चय के नीचे होकर बाद में आता है और उसके प्राप्त रहता है (अर्थात् नीचे यानी पूर्वावस्था होने पर व्यवहार नहीं रहता।। में होता है ऊपर यानी बाद में नहीं) 6. राजा की तरह सम्हालनेवाला है। 6. मंत्री की भाँति कर्मकार है। 7. तादात्म्य को देकर उपादान पर 7. निमित्त को प्रधानता देते हुए संयोग दृष्टि रखते हुए पारिणामिकभाव से होनेवाले औदयिकादि भावों का का ग्राहक होता है। अपनाने वाला है। उपरोक्त प्रकार जो विवेचना आचार्य ज्ञानसागरजी ने की है एवं जो दोनों नयों के कार्य को तुलनात्मक दृष्टि से प्रस्तुत किया है वह उनके गम्भीर नय ज्ञान का द्योतक है। वे अध्यात्म के मूर्धन्य शिरोमणि रूप में प्रकट होते हैं । आगम-समुद्र के नय प्रमाण रूप रत्नों के वे पारखी हैं । ऊपर उन्होंने निश्चय नय को मूक कहा है वह भी ठीक ही है। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने समयप्राभृत की गाथा नं. 12 में यह भाव प्रकट किया है - सुद्धो सुद्धादेसो णादव्वो परम भावदरिसीहिं । ववहारदोसिदा पुण जे दु अपर में द्विदा भावे ॥14॥ ता. वृ. - शुद्ध द्रव्य जिसका प्रयोजन है ऐसा शुद्ध नय (निश्चय नय) परमभाव दर्शियों के द्वारा जानने योग्य है किन्तु जो जीव अपरमभाव में स्थित हैं उनको व्यवहार नय का उपदेश देना चाहिए । यहाँ व्यवहार तो कथनात्मक कहा है किन्तु निश्चय नय को जानने योग्य (गूंगा) कहा है । वस्तुतः निश्चय नय के जबान नहीं हैं । हाँ, अन्तरंग चिन्तन स्वानुभव हेतु होता है शुद्ध आत्मानुभव को प्रकट कर प्रकाशित कर वह भी पलायन कर जाता है । देखिये, पूर्व उद्धृत कलश -
SR No.006273
Book TitleNay Nirupan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivcharanlal Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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