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आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण हाँ, यदि निश्चय नय विशेष से भी कहा जावे तो यहाँ कारण कार्यपना माना जरूर है और वहाँ उपादान को ही कारण माना है निमित्त को नहीं, यह भी सही है क्योंकि उसकी (कानजी की ) दृष्टि में निमित्त होता ही नहीं । वह नय तो अभिन्न को विषय करनेवाला है अत: उपादान को ही जानता है, जैसा द्रव्यसंग्रह में बताया है कि निश्चय नय से आत्मा अपने भावों का ही कर्त्ता है अर्थात् अभिन्न रूप में उसके भाव उससे ही होते हैं और से नहीं । सो ठीक ही है क्योंकि निमित्त भिन्न चीज है जिसको निश्चय नय देखता ही नहीं है । फिर यह कहना कैसा कि निश्चय नय में निमित्त होता तो है जरूर परन्तु कुछ करता नहीं है । निमित्त जो है सो व्यवहार नय का विषय है तो उसकी दृष्टि में वह कार्य का करनेवाला भी है ।"
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'बस, तो इसी प्रकार (ऊपर उदाहरण प्रस्तुत किया था) सभी प्रकार का कार्य उपादान और निमित्त दोनों की समष्टि से बनता है । उसको निश्चय नय उपादान से बना कहता है और व्यवहार नय निमित्त से । सो यह तो ठीक है किन्तु उपादान से ही कार्य बना है निमित्त होकर भी कुछ नहीं करता यह तो अनभिज्ञता है । " (पृष्ठ 13 )
" हे भव्य पुरुषों ! निश्चयैकान्त एक ऐसा गहन गृहीत मिथ्यात्व है कि जीव अपने आपको महान् आध्यात्मिक व बौद्धा समझता हुआ भी अमितकाल तक संसार सागर से पार नहीं हो सकता । पक्ष विशेष की गौणता - मुख्यता तो क्षश्य ही क्या श्लाघ्य भी है पर तिरस्करणीयता जिनागम व दिव्यध्वनि से वाह्य है ।
इतना कहने के पश्चात् भी जो कोई प्राणी अपना हठवाद न छोड़े तो उसका कल्याण अनन्त तीर्थंकर मिलकर भी नहीं कर सकते ।"
पू. आचार्य ज्ञानसागरजी का उपरोक्त कथ्य वर्तमान में भी कितना प्रासंगित है यह किसी से छिपा नहीं है । उनके हृदय में बड़ी पीड़ा थी कि दिगम्बर जैन समाज में यह निश्चय का गृहीत ज्वर बाहर से संक्रमित होकर समाज को विखंडित करने में लग गया है। उनके नय निरूपण की विशेषता है कि उक्त परिस्थिति का सर्वत्र ध्यान रखकर करुणाभाव से समाज को सम्यक् दिशा प्रदान की गई है। उन जैसे महान् मनीषियों के प्रयास का ही फल है कि अब एकान्त निश्चयाभास का अन्धेरा समाप्ति पर है ।
आचार्य ज्ञानसागरजी अगाध आगमज्ञान के धनी थे । संस्कृत, प्राकृत भाषाओं पर उनका स्पष्टतः अधिकार था । भाषा एवं शब्द, व्याकरण ज्ञान के बल से ही उन्होंने आध्यात्मिक एवं आगमिक ग्रन्थों को भली-भांति परिशीलन किया था । नय- विशारदता एवं विचक्षणता उनका विशेष गुण था । साहित्य संरचना में जिस स्थल पर उन्हें नय - विषयक स्पष्टीकरण की आवश्यकता अनुभव में आती उसकी पूर्ति करने में वे बड़े रुचिवान थे । उनकी नय योजना में श्रोता का हित सर्वोपरि दृष्टिगोचर होता है । निश्चय व्यवहार विषयक चर्चा में कार्य-कारण एवं निमित्त उपादान का रहस्य भी उद्घाटित करना उनको आवश्यक प्रतीत हुआ करता था । उपादान - निमित्त की अति सुन्दर व्युत्पत्तियाँ उन्होंने प्रस्तुत की हैं, एक स्थल दृष्टव्य है । यथा -
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