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आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण
उपरोक्त प्रकार दोनों नयों पर अति संक्षिप्त प्रकाश डाला गया है । सारांश यह है कि जीवादि पदार्थों के परिज्ञान के लिए प्रमाण और नयों की उपयोगिता है । जिस प्रकार हम किसी वस्तु को हर पहलु से घुमा-फिरा कर देखते हैं उसी प्रकार विभिन्न नयो (Points of view) या दृष्टिकोणों से समन्वित रूप से हमें प्रयोजनभूत तत्त्वों को जानना आवश्यक है। वस्तु अनन्त धर्मात्मक है अत: किसी एक ही नय के द्वारा उसका सर्वांगीण ज्ञान अशक्य है । हाँ 'अर्पितानर्पित सिद्धेः' इस वचन के अनुसार किसी नय को अमुक समय में मुख्य
और किसी को गौण करना पड़ता है । नयों को चक्षु की उपमा दी गई है । जैसे नेत्र दो हैं वैसे ही मुख्य नय भी दो हैं । निश्चय (Principal point of view) और व्यवहार (Practical point of view) । पू. आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज अपने वाङ्मय में जिस नय कौशल, स्याद्वाद चातुर्य से एवं लोकहित की उदात्त भावना से प्रकट हुए हैं वह अत्यन्त प्रशंसनीय है, स्पृहणीय है । उन्होंने जिनज्ञानाम्बुधि में से अमूल्य नय-रत्नों को प्रकट करते हुए स्वयं ज्ञानसागर नाम को सार्थक किया है ।
8. आचार्यश्री की नय योजना आचार्य ज्ञानसागरजी का साहित्य ऐसा दर्पण है जिसमें काल और क्षेत्र को दृष्टिगत कर नय सम्यक् समायोजित प्रतिबिम्बित होते हैं । उनका नय-विश्लेषण विशाल एवं बहुआयामी है । अध्यात्म के विविध प्रसंगों में यथास्थल नय सम्बन्धी भ्रान्तियों को निराकरण करने हेतु स्वयं भी शंका उठाकर समाधान किया है । 'सम्यक्त्वसारशतकम्' में नय निरूपण के प्रसंग में उपादान-निमित्त, कार्यकारण भाव आदि का बहुत हृदय स्पर्शी चित्रण है । वे पाठक को एकान्त के दुराग्रह से मुक्त कर अनेकान्त के समन्वित युक्तिसंगत परिवेश में प्रेरित करना चाहते हैं । पृष्ठ 11 दृष्टव्य है ।
शंका - जैनदर्शन में दो नय हैं, एक व्यवहार और दूसरा निश्चय । सो आप जो कुछ कह रहे हैं (उपादान-निमित्त दोनों का महत्त्व) वह व्यवहार नय का पक्ष है । व्यवहार नय में निमित्त जरूर है परन्तु कानजी ने जो कुछ कहा वह निश्चय नय से बतलाया है । निश्चय नय में तो कार्य अपने उपादान से ही होता है, क्योंकि निश्चय नय तो स्वाधीनता का वर्णन करनेवाला है, वह निमित्त की तरफ क्यों ध्यान दे, पराधीनता में क्यों जावे ।
समाधान - निश्चय नय से यदि कहा जावे तो वहाँ पहले तो कारण कार्यपन है ही नहीं, क्योंकि निश्चय नय तो सामान्य को ग्रहण करनेवाला है जहाँ कि न तो कोई चीज उत्पन्न ही होती है और न नष्ट ही, जैसा कि इस श्लोक में बतलाया है -
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।
निश्चयात्किन्तु पर्यायनयात्तावपि वस्तुनि ॥ निश्चय नय से असत् पदार्थ का भाव अस्तित्व नहीं होता और न सत् पदार्थ का कभी अभाव होता है अर्थात् निश्चय नय की अपेक्षा न तो कोई चीज पैदा होती है और न नष्ट ही किन्तु पर्याय यानी व्यवहार नय की अपेक्षा तो वस्तु में दोनों हैं । भाव और अभाव।