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.. आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण क्रियाओं की उपेक्षा कर मात्र ज्ञान को मोक्षमार्ग घोषित किया जाने लगा था । अवृतियों को शुद्धोपयोगी एवं मुनिवर्ग को द्रव्यलिंगी घोषित कर नये-नये पाठ्यक्रम, प्रवचन, ग्रन्थों में मिलावट आदि का दुरारम्भ हो रहा था । स्यावाद और अनेकान्त की मिथ्या परिभाषायें व्याख्यायित की जाने लगी थी । पुण्य को हेय एवं व्यवहार को सर्वथा हेय कह कर समाज के भोले लोगों को दिग्भ्रमित किया जा रहा था । निमित्त को अकिंचित्कर निरूपित कर सर्वथा उपादान के ही गीत गाये जाने लगे थे । अव्रतियों को मात्र मिथ्या प्रवचनपटुता के एवं प्रलोभन के चमत्कार में सद्ग्रह भाषित किया जाने लगा था। तप की निरर्थकता,शुभक्रियाओं, पूजा, दान आदि की निष्फलता सिद्ध की जाने लगी थी । यह परिस्थिति आचार्य ज्ञानसागरजी की दृष्टि में भली-भाँति आ गई थी । उन्हें समाज के प्रति वात्सल्य था । समाज के हित चिन्तन की भूमिका में एवं अपनी मर्मान्तक वेदना को अनिवार्य रूप में प्रकट करने की उपादेयता के परिवेश में उन्होंने अपने साहित्य में प्रवचनों में एकान्तवाद का निरसन किया। नय विवक्षाओं का निरूपण इसी का परिणाम है । सम्यक्त्वसार शतक, प्रवचनसार प्रतिरूपक/ समयसार प्रवचन, सुदर्शनोदय, जयोदय आदि में बड़े ही प्रभावक, कलात्मक एवं रुचिपूर्ण रूप में नयों का निरूपण उन्होंने किया है। उनका मार्गदर्शन सदैव समाज को दिशाबोध कराता रहेगा । वे हमारे बीच नहीं हैं, किन्तु उनका वाङ्मय मणिमय प्रकाशस्तम्भ की भांति हमें मार्ग दिखायेगा । उनकी शिष्य-प्रशिष्या मण्डली ने प. पू. आचार्य विद्यासागरजी के कुशल नेतृत्व में एकान्तवाद का निरसन करने में सफलता प्राप्त की है । प्रस्तुत प्रबन्ध में आचार्य ज्ञानसागरजी के निश्चय एवं व्यवहार नय निरूपण द्वारा अनेकान्त सिद्धि एवं तत्संबंधी आवश्यक विषय प्रस्तुत करने का प्रयत्न रहेगा । पाठकों को उनके नय विषयक निरूपण एवं अनेकान्त सिद्धि को सम्यक् हृदयंगम करने हेतु जिनागम में वर्णित निश्चय-व्यवहार स्वरूप पर यहाँ विस्तार से प्रकाश डालना अपेक्षित है ।
4. निश्चय - व्यवहार नय निश्चय-व्यवहार नय के स्वरूप अवबोध हेतु प्रमाण-नय की चर्चा की जाती है । आत्म-स्वरूप को सुखमय बनाने के लिए उसके परिज्ञान की अनिवार्य आवश्यकता है । ज्ञान की उपलब्धि प्रमाण और नयों से होती है । कहा भी है -
"प्रमाणनयैरधिगमः" । (तत्त्वार्थ) ज्ञान की समीचीनता का नाम ही प्रमाण है । ('सम्यग्ज्ञानं प्रमाणं') । प्रमाण के अंशों को नय कहते हैं । यथा -
अर्थस्यानेकरूपस्य धीः प्रमाणं तदंशधीः ।
नयो धर्मान्तरापेक्षी द्रर्णयस्तन्निराकृति ॥ - अनेक रूपवाले पदार्थ के सम्पूर्ण ज्ञान को प्रमाण कहते हैं और उसके अंश ज्ञान को नय । यह वस्तुगत विरोधी धर्म का वर्णन करने वाले नय का आपेक्षी है । उसका निराकरण करनेवाले/वाला नय दुर्नय है ।