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आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण की अपेक्षा द्रव्य का अस्तित्व एवं पर चतुष्टय की अपेक्षा नास्तित्व जैनदर्शन का मूल तत्त्व है वही उनको प्रिय था । वे अनेकान्त के प्रबल समर्थक थे।
उपरोक्त पंक्तियों में उन्होंने स्वयं की वर्णी उल्लिखित किया है इसका तात्पर्य यह है कि वे बाल ब्रह्मचारी होने के साथ-साथ वर्ण यानी बीजाक्षर के धनी थे । शब्दों के अतुल भण्डर थे। वर्ण व्यवस्था के पोषक थे चारों वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) की सुगठितता, परस्पर में सद्भावना के समर्थक थे । यथा -
न वर्णलोपः प्रकृतेर्न भङ्गः कुतोऽपि न प्रत्ययवत् प्रसङ्ग । यत्र स्वतो वा गुण वृद्धिसिद्धिः प्राप्ता यदीयापदुरीति ऋद्धिम् ॥
(जयोदय प्रथम सर्ग-24) जयोदय के प्रथम सर्ग के श्लोक 24, 31, 48 में एवं स्वोपज्ञ टीका में यह भाव व्यक्त किया गया है । वर्णी का अर्थ रंगवाले अर्थात् रंगीली प्रकृति युक्त भी है । यद्यपि उन्होंने शृङ्गार रस का भी चरम परिपाक अपने काव्य में कर अद्भुत काव्य प्रतिभा का परिचय दिया है तथापि वह रंग ऊपर-ऊपर तैरता ही दृष्टिगत होता है। उनका अभिधेय तो वैराग्य ही है । वे वर्णी (रंगीले) होकर भी वर्णी (ब्रह्मचारी) थे, शील की मूर्ति थे । यह भी उनके अतिशयी व्यक्तित्व का गुण है । उन्होंने अपने मानव-जीवन के उत्कृष्ट संयम स्वरूप निर्ग्रन्थ श्रमणत्व की साधना को अपने जीवन में उतार कर अपने विरक्त अन्त:करण को प्रकाशित किया था ।
उनका विशाल संस्कृत साहित्य वर्तमान विश्व का आश्चर्य ही है। श्री भागीरथप्रसाद त्रिपाठी 'वागीश शास्त्री' की निम्न उक्ति इस सत्य की साक्षी है। -- ..
"समष्टित: यह महाकाव्य (जयोदय) इस शताब्दी की सर्वश्रेष्ठ काव्य-कला का निदर्शन करती है ।" (जयोदय भूमिका)
यद्यपि उनका समग्र वाङ्मय (हिन्दी सहित) भवरोग हरण औषधि है तथापि संस्कृत भाषा में उनका जो व्यक्ति प्रतिष्ठा प्राप्त कर रहा है उससे वे सरस्वती साधकों के शिखर पर शोभायमान हैं । उनकी पच्चीस से अधिक कृतियां प्रकाशित हो चुकी हैं । उनकी लेखनी बहुआयामी है । विस्तार के भय से यहाँ कृतियों का परिचय नामादिक प्रस्तुत नहीं है । प्रस्तुत ग्रन्थ विषयक कृतियों का उल्लेख आगे करेंगे ।
3. नय निरूपण __ पू. आचार्य ज्ञानसागरजी की कृतियों में नय विवक्षा का स्पष्टीकरण प्रायः दृष्टिगत किया जा सकता है । इसमें सन्देह नहीं कि तात्कालिक परिस्थितियाँ साहित्य पर प्रभाव डाले बिना नहीं रहती । 1950 से 70 के दो दशकों में एकान्तवाद का प्रचार आचार्यश्री की दृष्टि में असंगत व श्रमण संस्कृति के लिए हानिकारक रूप में आ चुका था । निश्चयाभासी दृष्टिकोण अध्यात्म की छत्रच्छाया में प्रकट और प्रचारित किया जा रहा था । त्याग और तपस्या के छद्म विरोध को प्रकट रूप एवं दलीय रूप प्रदान किया जा रहा था । चारित्र, संयम एवं