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________________ 96 आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण 42. व्यवहारभास जिसको अनेकान्तात्मक मोक्षमार्ग का परिचय नहीं है मात्र व्यवहार नय द्वारा कथित मार्ग का भी अवलम्बी है तथा अनेकान्त के भेद निश्चय नय के द्वारा जिसको वस्तुस्वरूप का ज्ञान नहीं है मात्र बाहरी क्रिया- कांड को धारण करता है । देखादेखी और भावारहित अर्थात् बिना किसी निर्धारण के तप संयम अङ्गीकार करता है। श्रावक की स्थिति में तत्प्रायोग्य षट्कर्म की प्रवृत्ति में सावधान भी रहता है एवं साधु अवस्था में व्रत एवं मूलगुण आदि में रत रहता है किन्तु भाववबोध से रहित है, जिसको अपनी भाव परिणति बिगड़ती रहने का भय नहीं है । अन्तरङ्ग में कषाय की तीव्रता है जो कषाय को शान्त करने के लिए ज्ञान की उपयोगिता से अनभिज्ञ है, जो बिना मोक्षलक्ष्य के बाह्य तपश्चरण एवं क्रिया-काण्ड ही साक्षात् मोक्षमार्ग रूप सर्वस्व समझकर अपने को धर्मात्मा मानता है, चारित्र की विशुद्धि में कारण दर्शन और ज्ञान की ओर जिसकी दृष्टि नहीं है प्रयोजनभूत सात तत्त्वों का यथार्थ ज्ञान नहीं है तथा व्यवहार के द्वारा साध्य निश्चय आत्म-स्वरूप से जो अपरिचित है वह व्यवहाराभासी है । उसका व्यवहार वस्तुतः व्यवहार नहीं है । यद्यपि ऐसे व्यक्ति से समाज को विशेष हानि नहीं है तथा पुण्य कार्यों के सम्पादन से शुभ का बंन्ध होता है, लाभ ही है तथापि व्यवहाराभासी मोक्ष का पात्र नहीं है । इतना अवश्य है कि निश्चयाभासी की अपेक्षा व्यवहाराभासी भला है । व्यवहाराभासी भद्रपरिणामी हो तो यथार्थ मार्ग पर आने की संभावना अधिक रहती है क्योंकि वह प्रयत्नशील है, सक्रिय है, विनम्र है । शुभगति का पात्र होने से यथार्थ मार्ग सरल हो सकता है । 43. उभयाभास जो व्यवहार और निश्चय दोनों को अलग-अलग मोक्षमार्ग मानता है वह उभयाभासी है । व्यवहार और निश्चय ये दोनों प्रमाण के अंश है । इनका लक्ष्य एक ही पदार्थ होता है किन्तु उभयाभासी दोनों को स्वतन्त्र रूप से पृथक् पृथक् मानकर दो मोक्षमार्ग मानता है । ऐसा उभयाभासी सच्ची प्रतीति से अनभिज्ञ है । I उपरोक्त प्रकार नयों के दुरूपयोग देखने में आते हैं । पू. ज्ञानसागरजी महाराज ने अपने वाङ्मय में इसका सुष्ठु निरूपण किया है । उनका आशय है कि समीचीन दृष्टि से देखनेवाला व्यक्ति व्यवहार को साधन और निश्चय को साध्य मानता है हटवाद उसकी प्रकृति में नहीं रहता । वह जानता है कि मोक्षमार्ग तो एक ही है उसके दो पहलू हैं । जो सिद्धि के इच्छुक हैं उन्हें साध्य - साधन भाव से दो रूपों को धारण करनेवाले किन्तु वस्तु रूप से एक आत्मा की सम्यक् उपासना करना चाहिए । मुमुक्षु को न निश्चय का पक्ष है न व्यवहार का । वह बाह्य धर्म साधन करते हुए अन्तरंग भाव विशुद्धि पर ध्यान रखता है, ज्ञान सापेक्ष क्रिया का अनुपालक है तथा क्रम को स्वीकार कर पहले पाप को छोड़कर पुण्य का निष्ठावान् होकर आचरण करता है । पश्चात् जब शुद्धोपयोग रूप परम मुनिदशा में स्थित हो जाता है तो वहाँ पुण्य भी स्वतः ही छूट जाता है । पाप को तो प्रयत्नपूर्वक
SR No.006273
Book TitleNay Nirupan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivcharanlal Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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