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आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण
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यथा समय मुख्य- गौण करता है । तत्त्व प्राप्ति के बाद तो दोनों ही छूट जाते हैं । प्रमाण का कार्य ही नहीं रहा ।
41. निश्चयाभास
जो शुद्ध अध्यात्म प्रमुख ग्रन्थों का पठन करके निश्चय नय के वास्तविक अर्थ को न जानता हुआ व्यवहार धर्म, शुभ प्रवृत्ति, शुभोपयोग रूप अणुव्रत और महाव्रत रूप सरागचारित्र को सर्वथा हेय मानता है, निमित्त को कुछ भी कार्यकारी नहीं समझता, जिसने पाप क्रियाओं को अब तक छोड़ा नहीं है, जिसे गुणस्थान मार्गणास्थान आदि विषयक करणानुयोग में ज्ञान विश्वास नहीं है तथा जो दान-पूजा आदि शुभ कार्यों को सर्वथा बन्ध का कारण मानता है, चारित्र एवं चारित्रधारी मुनि आर्यिका श्रावक-श्राविकाओं की उपेक्षा करता है वह निश्ययाभासी है । उसका निश्चय आभास - मात्र, कथन मात्र है, वह निश्चयैकान्ती है ।
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जीव को शुद्ध निश्चय नय से कर्म का अकर्त्ता कहा गया है एवं शुभभाव को हेय कहा गया है । उसी कथन को सम्पूर्ण सत्य मानकर वह वैसा ही निरूपण करता है । द्रव्य व गुण को सर्वथा शुद्ध मानता है पर्याय को द्रव्य से भिन्न मानकर विकार को पर्यायगत ही समझता है । परन्तु आप साक्षात् रागी - द्वेषी हो रहा है । उस विकार को पर मानकर उससे बचने का उपाय नहीं करता । यद्यपि वस्तुतः स्वयं अशुद्ध है तथापि भ्रम से अपने को शुद्ध मानकर एक उसी शुद्ध आत्मा का चिन्तन करने का असफल प्रयास करता है । पर्याय जबकि द्रव्य से तन्मय है फिर भी उसे अस्पृष्ट मानकर सन्तुष्ट होता है । इस मान्यता का जीव दही-गुड़ खाकर प्रमादी हुए के समान आत्मस्वरूप से च्युत बहिरात्मा है ।
निश्चयैकान्ती एक ज्ञानमात्र को ही सम्पूर्ण मोक्षमार्ग मानता है तथा चारित्र तो स्वतः हो जायेगा, ऐसा जानकर चारित्र और तप हेतु उत्साही नहीं होता । नियतिवाद, क्रमबद्धपर्याय और कूटस्थता के एकान्त - ज्वर से पीड़ित रहता है । समय प्राभृतादि अध्यात्म के उपदेश का अनर्थकर अर्थात् सम्यग्दृष्टि अबन्धक है, वह भोगों से निर्जरा करता है ऐसा श्रद्धान कर भोग व पाप से विरक्त नहीं होता । पाप-पुण्य को बराबर समझ कर पाप से नहीं छूटता। शुभोपयोग को किसी भी प्रकार शुद्धोपयोग का साधक नहीं मानता । व्यवहार- मोक्षार्ग को मोक्षमार्ग ही स्वीकार नहीं करता । भ्रम से अपने को ज्ञान-वैराग्य शक्ति से रहित होने पर भी सम्यग्दृष्टि एवं मोक्षमार्गी मानता है । प्रथम ही निश्चय - मोक्षमार्ग तथा बाद में व्यवहार का सद्भाव अर्थात् उल्टा कारण कार्यभाव मानता है । मोक्ष के निश्चय ( इरादे ) को ही निश्चय सम्यग्दर्शन मान लेता है । व्यवहार के कथन को अवास्तविक घोषित करता है कि ' यह कहा है, ऐसा है नहीं ।' विवक्षा को नहीं समझता । मात्र शुद्धोपयोग के गीत गाता हुआ अशुभ परिणामों से नरकादि कुगति का पात्र होता है । जिनवाणी के चारों अनुयोगों में केवल द्रव्यानुयोग को ही हितकर मानता है । इसी प्रकार की नाना विपरीत मान्यताओं
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युक्त निश्चयाभासी स्वयं तो अपनी हानि करता ही है साथ ही सांख्यमत की अवधारणा को पुष्ट कर समाज को भी पाप के पंक में डुबो लेता है ।