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________________ अजीव पदार्थ : टिप्पणी ६ इस विषय में इन द्रव्यों से आकाश का वैधर्म्य है। आकाश लोक-प्रमाण ही नहीं, आलोक-प्रमाण भी है। इसीलिए आकाश के विषय में कहा गया है-“खेत्तओ लोगालोग-पमाणमित्ते" ठा० ५.३.४४२। यहाँ यह स्मरणीय है कि जीव का क्षेत्र लोक-प्रमाण है। काल केवल ढाई द्वीप में है-“समय समयखेत्तिए" ७ धर्म, अधर्म, आकाश शाश्वत और स्वतन्त्र द्रव्य (गा० ८-९) : इन गाथाओं में धर्म, अधर्म और आकाश इन तीनों द्रव्यों के बारे में निम्नलिखित बातें कहीं गई हैं : (१) तीनों शाश्वत हैं और (२) तीनों के गुण, पर्याय भिन्न-भिन्न और तीनों काल में अपरिवर्तनशील हैं। हम यहाँ इन दोनों बातों पर क्रमशः प्रकाश डालेंगे। (१) उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है-“धर्म, अधर्म और आकाश-ये तीनों द्रव्य सर्वकालिक और अनादि अनन्त हैं।" ___आगामों में अस्तिकाय द्रव्यों पर विवेचन करते हुए कहा गया है : “वे कभी नहीं थे ऐसा नहीं, वे कभी नहीं हैं ऐसा नहीं, वे कभी नहीं होंगे ऐसा नहीं; वे थे, हैं और रहेंगे। वे ध्रुव, नियम, शाश्वत, अक्षत, अव्यय, अवस्थित और नित्य है। इससे पाँचों द्रव्यों की शाश्वतता पर प्रकाश पड़ता है। एक बार गौतम ने श्रमण भगवान महावीर से पूछा-“भन्ते ! धर्मास्तिकाय, धर्मास्तिकाय रूप में काल की अपेक्षा कब तक रहती है ?" महावीर ने उत्तर दिया "गौतम ! 'सव्वद्धं-सर्वकाल।" यह उत्तर केवल धर्मास्तिकाय पर ही नहीं अद्धाकाल तक सब द्रव्यों पर घटित होता है। इससे धर्म आदि तीन ही नहीं सर्व द्रव्य शाश्वत माने गये हैं, यह स्पष्ट हो जाता है। १. उत्त० ३६.८ ___ धम्माधम्मागासा तिन्नि वि एए अणाइया। - अपज्जवसिया चेव सव्वद्धं तु वियाहिया।। २. ठाणाङ्ग ५.३.४४१ : कालयो ण कयाति णासी न कयाइ न भवति ण कयाई ण भविस्सइत्ति, भुवि भवति य भविस्सति त धुवे णितिते सासते अक्खए अव्वते अवट्ठिते णिच्चे। भगवती २.१० ३. पण्णवण : १८ कायस्थिति पद : दारं २२ धम्मत्थिकाए णं पुच्छा। गोयमा ! सव्वद्धं, एवं जाव अद्धासमए
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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