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________________ ७४ .. नव पदार्थ (२) धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय इन तीनों लक्षणों का वर्णन आगे चल कर गाथा ११ से १३ में आया है। इनके गुण और कार्यों की भिन्नता वहाँ से स्पष्ट है। जो द्रव्य और गुण के आश्रित होकर रहे वह पर्याय है। पर्यायें द्रव्य और उनके गुण के अनुकूल होती हैं । भिन्न-भिन्न गुणों वाले अस्तिकायों की पर्यायें भिन्न-भिन्न ही होंगी, यह स्वाभाविक है। धर्म, अधर्म और आकश तीनों काल मे अपने गुण और पर्यायों सहित विद्यमान रहते हैं। इनके गुण और पर्याय भिन्न-भिन्न तो हैं ही, साथ ही साथ किसी भी काल में एक के गुण-पर्याय दूसरे के नहीं होते। आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है-“धर्म, अधर्म और लोकाकाश अपृथग्भूत (एक क्षेत्रावगाही) और समान परिणाम वाले होते हैं पर निश्चय से तीनों द्रव्यों की पृथक उपलब्धि है। इन तीनों में एकता अनेकता है। ये तीनों द्रव्य एक क्षेत्र में रहते हैं, और एक दूसरे में ओतपोत होकर रहते हैं अतः एक क्षेत्रगावाही होने से पृथक् नहीं हैं फिर भी तीनों के स्वभाव और कार्य भिन्न-भिन्न हैं और हरएक अपनी सत्ता में मौजूद हैं। क्षेत्रावगाह की दृष्टि से अपृथक्तव होते हुए भी गुण-स्वभाव और पर्याय की दृष्टि से भिन्नता को लिए हैं।" जो बात धर्म, अधर्म और आकाश के बारे में यहाँ कहीं गई है वही बाकी द्रव्यों के विषय में धटित होती है अर्थात् सभी द्रव्य शाश्वत स्वतन्त्र हैं। ८. धर्म. अधर्म. आकाश विस्तीर्ण निष्क्रिय द्रव्य हैं (गाथा १०) : इस गाथा में धर्म, अधर्म और आकाश इन द्रव्यों के बारे में तीन बातें कहीं गई (१) ये तीनों द्रव्य फैले हुए हैं, (२) तीनों निष्क्रिय हैं, और (३) पुद्गल और जीव द्रव्य ही सक्रिय हैं। इनके हलन-चलन क्रिया करने का क्षेत्र लोक हैं। इनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है : (१) यह पहले बताया जा चुका है कि धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्य लोक-प्रमाण १. पञ्चास्तिाय : १.६६ धम्माधम्मागासा अपुधभूदा समाणपरिमाणा। पुधगुवलद्धिविसेसा करंति एगत्तमण्णत्तं ।।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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