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नव पदार्थ
इसलिये जीव का कायत्व सिद्ध है। परमाणु एक ही आकाश-प्रदेश को रोकता है। परमाणु को ध्यान में रखने से पुद्गल के प्रदेशत्व नहीं है परन्तु परमाणुओं में पारस्परिक मिलन की स्वाभाविक शक्ति रहती है। अतः उनसे बने स्कन्ध आकाश के अनेक प्रदेशों को रोकते हैं । यही पुद्गल का कायित्व है। धर्म और अधर्म अखण्ड और विस्तीर्ण होने से अनेक प्रदेशों को रोकेंगे ही। तिल में तेल की तरह धर्म और अधर्म लोक-व्यापी हैं और इस व्यापकता के कारण अनन्त प्रदेशात्मकता अपने आप आ जाती है। धर्म, अधर्म और आकाश के परमाणु जितने छोटे अंशों की कल्पना की जा सकती है परन्तु इन पदार्थों के विभक्त टुकड़े नहीं किये जा सकते हैं इसलिये अनेक प्रदेशों को रोकना अनिवार्य है। आकाश लोकालोक व्यापी और विस्तृत है। उपर्युक्त रूप से जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश का अस्तित्व और बहुप्रदेशीपन साबित है। अतः इनका अस्तिकाय नाम उपयुक्त ही है।
पंचास्तिकायों के सिद्धान्त को लेकर भगवान महावीर के समय में भी बड़ा वादविवाद था। श्रमणोपासक मद्रुक और गणधर गौतम से अन्ययुथिकों ने चर्चाएँ कीं। फिर महावीर ने समझ कर अनुयायी हुए। ६. धर्म, अधर्म, आकाश का क्षेत्र-प्रमाण (गा० ७)
इस गाथा में धर्म, अधर्म और आकाश इन अस्तिकायों के क्षेत्र-प्रमाण पर प्रकाश डाला है। स्वामी जी ने प्रथम दो को लोक-प्रमाण कहा है और आकाशास्तिकाय को लोक-अलोक-प्रमाण । यही बात उत्तराध्ययन सूत्र की निम्न गाथा में सूचित है :
धम्माधम्मे य दो चेव, लोगमित्ता वियाहिया। लोगालोगे या आगासे, समए समयखेत्तिए।।
३६.७। एक बार गौतम ने भगवान महावीर से पूछा-“भन्ते ! धर्मास्तिकाय कितनी बड़ी है ?" महावीर ने उत्तर देते हुए कहा-"गौतम ! यह लोक है, लोकमात्र है, लोक-प्रमाण है, लोक-स्पृष्ट है, लोक को स्पृष्ट कर रही हुई। गौतम ! अधर्मास्तिकाय, जीवास्तिकाय
और पुद्गलास्तिकाय के विषय में भी ऐसा ही समझना चाहिए।" १. भगवती १८.७; ७.१० २. भगवती २.१० :
धम्मत्थिकाय णं भन्ते ! केमहालए पण्णत्त गोयमा ! लोए. लोयमेत्ते, लोयप्पमाणे, लोयफुड लोयं चेव फुसित्ता णं चिट्ठ; एवमहम्मत्थिकाए, लोयाकासे, जीवत्थिकाए, पोग्गलत्थिकाए पंच वि एक्काभिलावा