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अजीव पदार्थ : टिप्पणी ५
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अस्तित्व में नियत हैं, अपनी सत्ता में अनन्य हैं, निर्विभाग प्रदेशों द्वारा बड़े-अनेक प्रदेशी हैं । इनका नाना प्रकार के गुण और पर्याय सहित अस्तित्वभाव है। इससे ये अस्तिकाय
प्रथम ढाल (गा० १) में जीव को असंख्यात प्रदेशी द्रव्य कहा है। यहाँ गा० ४-५ में धर्म, अधर्म द्रव्य के भी इतने ही प्रदेश बतलाये गये हैं। आकाश के प्रदेश अनन्त हैं (गा० ६) पुद्गल संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेशी हैं।
दिगम्बर आचार्य भी यही प्रदेश संख्या मानते हैं। इस तरह जीव, धर्म अधर्म, आकाश और पुद्गल सब अस्तिकाय है।
जीव, धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल सभी अस्तित्ववाली वस्तुएँ हैं। इनका अस्तित्व तर्क से सिद्ध किया जा सकता है।
जीव के अस्तित्व को हम पहले सिद्ध कर चुके हैं (पृ० २५ टि०५)। अजीव न हो तो जीव संज्ञा ही नहीं बन सकती। इस तरह जीव का प्रतिपक्षी अजीव पदार्थ होगा ही यह स्वयंसिद्ध है। अजीव पदार्थों में पुद्गल रूपी-वर्ण, गंध, रस और स्पर्श युक्त होने से प्रगट दृश्य है। सोना और चांदी, ऑक्सीजन और हाइड्रोजन सब पुद्गल हैं । स्थान के बिना जीव और पुद्गल का रहना सम्भव नहीं हो सकता इसलिये स्थान-आकाश का भी अस्तित्व सिद्ध होता है। आकाश के सहारे ही यदि जीव और पुद्गल की गति या स्थिति होती तब तो लोक अलोक का ही अस्तित्व नहीं रहता। इसलिये आकाश से भिन्न गति स्थिति के सहायक पदार्थ धर्म और अधर्म का अस्तित्व सिद्ध होता है। नया, पुराना आदि भाव काल बिना नहीं होते। अतः काल द्रव्य भी है। इस तरह जीव, धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल ये छहों सद्भाव द्रव्य हैं।
जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्य की अनेक प्रदेशात्मकता भी साबित की जा सकती है। जीव देह संयुक्त होता है। देहवान होने से स्थान आकाश को अवश्य रोकेगा । एक अविभागी पुद्गल परमाणु जितने आकाश को स्पर्श करता है उतने को प्रदेश कहते हैं यह पहले बताया जा चुका है। जीव ऐसे अनेक प्रदेशों को स्पर्श करता है
१. पंचास्तिकाय :४.५ :
जीवा पुग्गलकाया धम्माधम्मा तहेव आयासं। अत्थितम्हि य णियदा अणण्णमइया अणुमहंता।। जेसिं अत्थिसहाओ गुणेहिं सह पज्जएहिं विविहेहिं।
ते हॉति अस्थिकाया णिप्पणं जेहिं तइलुक्कं ।। २. द्रव्यसंग्रह : २५