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नव पदार्थ
और तत्त्वार्थ सूत्र में भी ऐसा ही कथन है। '
प्रथम ढाल गा० ५ में जीव को अस्तिकाय कहा है। इन दोनों कथनों से छ: द्रव्यों में काल को छोड़ कर बाकी पाँच अस्तिकाय ठहरते हैं। आगमों में भी अस्तिकाय की संख्या पाँच कही गई हैं। दिगम्बर आचार्य भी ऐसा मानते हैं।
अस्तिकाय 'अस्ति' और 'काय' इन दो शब्दों को यौगिक शब्द है। इसकी दो परिभाषाएँ मिलती है :
(१) अस्ति=प्रदेश; काय समूह | जो प्रदेशों का समूह रूप हो वह अस्तिकाय है।
(२) 'अस्ति' अर्थात् जिसका अस्तित्व है और 'काय' अर्थात् काय के समान जिसके बहुत प्रदेश हैं | जो है और जिसके बहुत प्रदेश है वह अस्तिकाय है।
इन परिभाषाओं में 'अस्ति' शब्द का अर्थ में अन्तर देखा जाता है पर फलितार्थ में कोई अन्तर नहीं।
__ स्वामीजी ने परिभाषा दी है वह उपर्युक्त दूसरी परिभाषा से सम्पूर्णतः मिलती है। आचार्य कुन्दकुन्द ने लिखा है : “धर्म आदि अपने अपने सामान्य विशेष
१. (क) ठाणाङ्ग ४.१, २५२ :
चत्तारि अस्थिकाया अजीव काया पं० सं०-धम्मत्थिकाए अधम्मत्यिकए आगासत्थिकाए
पोग्गलत्थिकाए (ख) तत्त्वार्थ सूत्र ५.१ :
अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गलाः २. ठाणाङ्ग ५.३.४४१
पंच अत्थिकाया पं० तं०-धम्मत्थिकाते अधम्मत्थिकाते आगासत्थिकाते जीवत्थिकाते
पोग्गलत्थिकाए। ३. द्रव्यसंग्रह २३ :
एवं छब्भेयमिदं जीवाजीवप्पभेददो दव्वं ।
उत्तं कालविजुत्तं णायव्व पंच अत्थिकाया दु।। ४. २ प्वती सार पृ० २३८ ५. (क) द्रव्यसंग्रह २४ :
संति जदो तेणेदे अत्थीति भणंति जिणवरा जम्हा।
काया एव इव बहुदेसा तम्हा काया य अत्थिकाया य।। (ख) प्रवचनसार २.४४, २२ :
भण्णंते काया पुण बहुप्पेदेसाण पचयत्तं ।