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अजीव पदार्थ : टिप्पणी ४-५
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४. प्रत्येक द्रव्य का स्वतन्त्र अस्तित्व (गा० ३)
स्वामी जी ने गा० ३ में दो बातें कही हैं : (१) पाँचों अजीव द्रव्य एक साथ रहते हैं। जहाँ धर्म हैं वहीं अधर्म हैं, वहीं आकाश है, वहीं काल है और पुद्गल । पाँचों एक क्षेत्रावगाही हैं और परस्पर ओत-प्रोत होकर रहते
(२) एक साथ रहने पर भी पाँचों अपने स्वतन्त्र अस्तित्व को नहीं खोते । द्रव्यों में युगपत्प्राप्तिरूप अत्यन्त संकर होने पर भी नित्य सदा काल मिलाप होने पर भी उनका स्वरूप नष्अ नहीं होता और हर द्रव्य अपने स्वभाव में अवस्थित रहता है।
प्रश्न होता है फिर जीव द्रव्य क्या कहीं और रहता है और क्या वह अपना स्वरूप छोड़ सकता है ? अजीव पदार्थ का विवेचन होने से स्वामीजी ने यहाँ पाँच अजीव द्रव्यों के ही एक साथ रहने की चर्चा की है वैसे छहों द्रव्य एक साथ रहते हैं और पाँच अजीव द्रव्यों की तरह जीव द्रव्य भी साथ रह कभी अपने स्वभाव वे च्युत नहीं होता।
स्वामीजी के कथन का आधार आगमों में अनेक स्थानों पर प्राप्त होता है। ठाणांग में कहा है-'ण एवं वा भूयं वा भविस्सइ वा जं जीवा अजीवा भविस्संति अजीवा वा जीवा भविस्संति। न ऐसा हुआ है, न होता है और न होगा कि जीव कभी अजीव हो अथवा अजीव कभी जीव । इसका अर्थ है जीव द्रव्य कभी धर्म, अधर्म, आकाश, काल या पुद्गल रूप नहीं होता और न धर्म आदि ही कभी जीव रूप होते हैं। इसी तरह पांचों अजीव द्रव्य भी परस्पर एक दूसरे में परिवर्तित नहीं होते।
इस बात को प्रसिद्ध दिगम्बराचार्य कुन्दकुन्द ने इस प्रकार बताया है-'छहों द्रव्य एक दूसरे में प्रवेश करते हैं, परस्पर एक दूसरे को अवकाश-स्थान देते हैं और सदा काल मिलते रहते हैं तथापि स्वस्वभाव को नहीं छोड़ते।'
५. पंच अस्तिकाय (गा० ४-६) :
___ इन गाथाओं में धर्म, अधर्म और आकाश इन तीनों द्रव्यों को अस्तिकाय कहा गया है। पुद्गल भी अस्तिकाय है। इस तरह पाँच अजीव द्रव्यों में चार अस्तिकाय हैं। ठाणांग
१. पञ्चास्तिकायः अधि० १.७ :
अण्णोण्णं पविसंता दिता ओगासमण्णमण्णस्स। मेलंता वि य णिच्चं सगं सभावं ण विजहंति।।