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________________ ६८ पुद्गल अन्य द्रव्य पाँच उपयोग रहित अचेतन' । ३. अरूपी रूपी अजीव द्रव्य ( गा० २ ) : स्वामीजी ने अजीव द्रव्यों के दो विभाग किये हैं- (१) अरूपी और (२) रूपी । आगम में भी ऐसे कथन अनेक जगह उपलब्ध हैं- 'रूविणों चेवरूवी य अजीवा दुविहा भवे । 'अजीवरासी दुविहा पन्नत्ता रूवी अजीवरासी अरूवी अजीवरासी यर । आगमों के अनुसार ही अजीव पदार्थ के पाँच भेदों में पुद्गल के सिवा शेष चारों द्रव्य अरूपी-अमूर्त हैं । पुद्गल रूपी - मूर्त है। धर्म, अधर्म, आकाश और काल का कोई आकार नहीं होता और न उनमें वर्ण, गंध, रस, स्पर्श होते हैं। इससे वे चक्षु आदि इन्द्रियों से ग्रहण नहीं हो सकते हैं। यही कारण है कि जिससे उन्हें अमूर्त कहा है। पुद्गल के स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण और संस्थान भी होता है। इन इन्द्रिय-ग्राह्य गुणों के कारण पुद्गल मूर्त-रूपी होता है । अरूपी रूपी का यह भेद दिगम्बराचार्यों को भी मान्य है । कुन्दकुन्दाचार्य ने इस विषय में इस प्रकार विवेचन किया है - "जिन लिंगों-लक्षणों से जीव और अजीव द्रव्य जाने जाते हैं वे द्रव्यों के स्वरूप की विशेषता को लिए हुए मूर्तिक या अमूर्तिक गुण होते हैं। जो मूर्तिक गुण हैं वे इन्द्रिय-ग्राह्य हैं और वे पुद्गल द्रव्य के ही हैं और वर्णादिक भेदों से अनेक तरह के हैं। अमूर्त द्रव्यों के गुण अमूर्तिक जानने चाहिये ।... धर्मास्तिकाय आदि के गुण मूर्तिप्रहीण - मूर्ति रहित है ।" इस कथन का सार यह है - जो इन्द्रिय-ग्राह्य गुण हैं उन्हें मूर्ति कहते हैं । पुद्गल के गुण इन्द्रिय-ग्राह्य हैं इसलिये वह मूर्त-रूपी द्रव्य है । अवशेष द्रव्यों के गुण इन्द्रियग्राह्य नहीं - 'अमूर्ति हैं अतः वे द्रव्य अमूर्त हैं । १. प्रवचनसार २.३५ नव पदार्थ दव्वं जीवमजीव जीवो पुण चेदणोवजोगमओ । पोग्गलदव्वप्पमुहं अचेदर्ण हवदि अज्जीवं । । २. उत्त० ३६.४ ३. सम० सू० १४६ ४. (क) उत्त० ३६.६ (ख) सम० सू० १४६ तथा भगवती १८.७; ७.१० प्रवचनसार अधि० २. ३८-३६, ४१-४२ 6.
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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