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________________ मोक्ष पदार्थ : टिप्पणी ६ है, तब पुण्य, पाप,बन्ध और मोक्ष को भी जान लेता है। जब मनुष्य इनको जान लेता है, तब देवों और मनुष्यों के कामभोगों को जान कर उनसे विरक्त हो जाता है। जब मनुष्य भोगों से विरक्त होता है, तब अन्दर और बाहर के सम्बन्धों को छोड़ देता है। जब इन सम्बन्धों को छोड़ देता है तब मुण्ड हो अनगारवृत्ति को धारण करता है । अनगारवृत्ति को ग्रहण करने से वह उत्कृष्ट संयम और अनुत्तर धर्म का स्पर्श करता है । ऐसा करने अज्ञान से संचित की हुई कलुषित कर्मरज को धुन डालता है। कर्मरज को धुन डालने से वह सर्वगामी केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त कर लेता है। अब वह जिन केवली लोकालोक को जान लेता है। इन्हें जान लेने से वह योगों का निरोध कर शैलेशी अवस्था को प्राप्त करता है । जब ऐसी अवस्थां को प्राप्त करता है, तब कर्मों का क्षय कर निरज सिद्धि को प्राप्त करता है। जब वह निरज सिद्धि को प्राप्त करता है तब वह लोक के मस्तक पर स्थित हो शाश्वत सिद्ध होता है ।" दूसरा वर्णन इस प्रकार है : "राग-द्वेष रहित निर्मल चित्तवृत्ति को धारण करने से जीव धर्मध्यान को प्राप्त करता है। जो शंका रहित मन से धर्म में स्थित होता है, वह निर्वाणपद की प्राप्ति करता है । ऐसा मनुष्य संज्ञी-ज्ञान से अपने उत्तम स्थान को जान लेता है। संवृतात्मा शीघ्र ही यथातथ्य स्वप्न को देखता है। जो सर्वकाम से विरक्त होता है जो भय-भैरव को सहन करता है, उस संयमी और तपस्वी मुनि के अवधिज्ञान उत्पन्न होता है। जो तप से अशुभ श्याओं को दूर हटा देता है उसका अवधिदर्शन विशुद्ध-निर्मल हो जाता है । फिर वह ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और तिर्यक्लोक के जीवादि सर्व पदार्थों को सब तरह से देखने लगता है। जो साधु भली प्रकार स्थापित शुभ लेश्याओं को धारण करनेवाला होता है, जिसका चित्त तर्क-वितर्क से चञ्चल नहीं होता, इस तरह वह सर्व प्रकार से विमुक्त होता है उसकी आत्मा मन के पर्यवों को जान लेती है-उसे मनःपर्यव ज्ञान उत्पन्न होता है, जिस समय उस मुनि का ज्ञानावरणीय कर्म सर्व प्रकार से क्षय-गत हो जाता है, उस समय वह केवलज्ञानी और जिन हो लोकअलोक को देखने लगता है। जब प्रतिमाओं के विशुद्ध आराधन से मोहनीयकर्म क्षयगत होता है, तब सुसमाहित आत्मा अशेष- सम्पूर्ण-लोक और अलोक को देखने लगता है। जिस तरह अग्रभाग का छेदन करने से ताड़ का गाछ भूमि पर गिर पड़ता है, उसी प्रकार मोहनीयकर्म के क्षय-गत से होने से सर्व कर्म भी नष्ट हो जाते हैं । केवली भगवान इस शरीर को छोड़कर तथा नाम, गोत्र, आयु और वेदनीयकर्म का छेदन कर रज से सर्वथा रहित हो जाते हैं । १. दश० ४.१४ - २५ २. दशाश्रुतस्कंध - ७५३ ५.१-३, ५-११, १६
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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