SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 754
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बंध पदार्थ : टिप्पणी १३ ७२६ (१) आत्मा के साथ बंधे हुए कर्मदल - स्कंधों का अलग-अलग प्रकृतियों में बँटवारा होता है। यह भाग- बँटवारा कर्मों की स्थिति-मर्यादा के अनुपात से होता है। केवल वेदनीय के सम्बन्ध में यह नियम लागू नहीं है । (२) जीव सर्व आत्म-प्रदेशों से कर्म ग्रहण करता है। छओं दिशाओं के आत्म-प्रदेशों द्वारा कर्म ग्रहण होते हैं । (३) जीव द्वारा ग्रहण किए हुए कर्मदल बहुत सूक्ष्म होते हैं- स्थूल नहीं होते । औदारिक, वैक्रिय आदि कर्मणाओं में से सूक्ष्म परिणति प्राप्त आठवीं कार्मण वर्गणा ही बंध योग्य है। (४) जिस क्षेत्र में आत्म-प्रदेश रहते हैं उसी प्रदेश में रहे हुए कर्मदल का बंध होता । इस क्षेत्र से बाहर के कर्म - स्कंधों का बंध नहीं होता। यही एक क्षेत्रावगाढ़ता है । (५) प्रत्येक कर्म के अनन्त स्कंध सभी आत्मप्रदेशों के बंधते हैं अर्थात् एक-एक कर्म के अनन्त स्कंध आत्मा के एक-एक प्रदेश से बंधते हैं। आत्म के एक-एक प्रदेश पर सभी कर्मों के अनन्त-अनन्त स्कंध रहते हैं । (६) एक-एक कर्म- स्कंध अनन्तानन्त परमाणुओं का बना होता है। कोई संख्यात, असंख्यात या अनन्त परमाणुओं का बना नहीं होता । प्रत्येक स्कंध अभव्यों से अनन्तगुण प्रदेशों के दल से बने होते हैं । 1 १३. बंधन मुक्ति ( गा० २७-२९ ) : उपर्युक्त गाथाओं में बंधे हुए कर्मों से छुटकारा पाने का रास्ता बतलाया गया है। इस संसार में जीव अपने से विभिन्न जातीय पदार्थ से सदा संयोजित रहता है परन्तु जिस तरह एकाकार हुए दूध और जल को अग्नि आदि प्रयोगों द्वारा पृथक् किया जा सकता है, उसी तरह चेतन और जड़ के संयोग का भी आत्यन्तिक- सदा सर्वदा के लिए पृथक्करण - वियोग किया जा सकता है। जीव और कर्म का सम्बन्ध ऐसा नहीं है कि उसका अन्त ही न हो सके, कारण आत्मा और जड़ पदार्थ पुद्गल दोनों अनादि काल दूध-पानी की तरह एक क्षेत्रावगाही - ओत-प्रोत होने पर भी अपने-अपने स्वभाव को लिए हुए हैं, उसे छोड़ा नहीं है। केवल जड़ के प्रभाव से चेतन अपने सहज ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य के गुणों को प्रकट करने में असमर्थ है। जिस तरह जल के मिले रहने पर दूध के मिठास में फर्क पड़ जाता है, उसी प्रकार पुद्गल के प्रभाव से आत्मगुणों में
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy