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________________ ७२८ नव पदार्थ मोहनीय कर्म में और उससे विशेषाधिक वेदनीय कर्म में बांट कर क्षीर नीर की तरह अथवा लोह अग्नि की तरह उन कर्म-वर्गणा के स्कंधों के साथ मिल जाता है । कर्म दलिकों की इन आठ भागों की कल्पना अष्टविध कर्मबंधक की अपेक्षा समझनी चाहिए। छह और एकविध बंधक विषय में उतने उतने ही भाग की कल्पना कर लेनी चाहिए ।" यहाँ यह ध्यान में रखने की बात है कि प्रत्येक कर्म के दलिकों का विभाग उसकी स्थिति-मर्यादा के अनुपात से होता है अर्थात् अधिक स्थिति वाले कर्म का दल अधिक और कम स्थिति वाले का दल कम होता है । परन्तु वेदनीय कर्म के सम्बन्ध में ऐसा नहीं है । उसकी स्थिति कम होने पर उसके हिस्सेका भाग सबसे अधिक होता है। इसका कारण इस प्रकार बतलाया गया है - "यदि वेदनीय के हिस्से में कम भाग आये तो लोक में सुख-दुःख का पता ही न चले। लोक में सुख-दुःख प्रगट मालूम पड़ते हैं इसलिए वेदनीय के हिस्से में कर्मदल सबसे अधिक आता है ।" उत्तराध्ययन में कहा है (१) आठों कर्मों के अनन्त पुद्गल हैं। वे सब मिलकर संसार के अभव्य जीवों से अनन्त गुण होते हैं और अनन्त सिद्धों से अनन्तवें भाग जितने होते हैं। (२) सब जीवों के कर्म सम्पूर्ण लोक की अपेक्षा से छओं दिशाओं में सर्व आत्म प्रदेशों से सब प्रकार से बंधते रहते हैं । आचाराङ्ग में कहा है : "ऊर्ध्व स्रोत है, अधः स्रोत है, तिर्यक् दिशा में भी स्रोत है। देख ! पाप-द्वारों को ही स्रोत कहा गया है है जिससे आत्मा के कर्मों का सम्बन्ध होता है । " ऊपर में जो अवतरण दिए गये हैं उनसे प्रदेशबंध के सम्बन्ध में निम्न लिखित प्रकाश पड़ता है : १. (क) नवतत्त्वसाहित्यसंग्रह : देवानन्दसूरिकृत सप्ततत्त्वप्रकरण अ० ४ (ख) वही : अव० वृत्त्यादिसमेतं नवतत्त्वप्रकरणम् गा० ६०-६३ : २. देखो नवतत्त्वसाहित्यसंग्रह : अव० वृत्यादिसमेतं नवतत्वप्रकरणम् गा० ६२ तथा उसकी अवचूरी : विग्घावरणे मोहे, सव्वोपरि वेअणीइ जेणप्पे । तस्स फुडत्तं न हवइ, ठिईविसेसेण सेसाणं । । ३. आचारांग श्रु० १, ५६ उड्ढं सोया अट्टे सोया तिरियं सोया वियाहिया । ए ए सोया विअक्खाया जेर्हि संगति पासहा ।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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