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________________ ७३० नव पदार्थ अन्तर-फीकास आ जाता है। परन्तु इस जड़ पुद्गल को चेतन आत्मा से दूर करने का उपाय हैं। इस तथ्य को यहाँ तालाब के उदाहरण द्वारा समझाया गया है। जिस तरह जल से भरे हुए तालाब को रिक्त करने के लिए दो बातों की आवश्यकता होती है-एक नए आते हुए जल के प्रवेश को रोकना और दूसरे तालाब में रहे हुए जल को बाहर निकालना। ठीक उसी तरह आत्मा के प्रदेशों को भौतिक सुख-दुःख के कारण कर्मों से मुक्त-शून्य करने के लिए भी दो उपाय हैं-एक तो कर्मों के प्रवेश (आस्रव) को रोकना, दूसरे प्रविष्ट कर्मों का नाश करना। पहला कार्य संवर-संयम से सिद्ध होता है। संवरयुक्त आत्मा के तप करने से दूसरा कार्य सिद्ध होता है। संवर के साधन से आत्म-प्रदेशों में शीतलता आकर उनकी चंचलता, कंपनशीलता मिट जाती है जिससे नए कर्मों का ग्रहण नहीं होता। तप द्वारा आत्म-प्रदेश रूक्ष होने से लगे हुए कर्म झड़ पड़ते हैं। सर्व कर्मों के आत्यन्तिक क्षय से आत्मा अपने सहज निर्मल स्वभाव में प्रकट होता है। जन्म-मरण और व्याधि के चक्र से उसका छुटकारा हो जाता है और वह शाश्वत पद को प्राप्त करता है। उसके ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य के . स्वाभाविक गुण सम्पूर्ण तेज के साथ प्रकट हो जाते हैं। इस स्वरूप का प्रकट होना ही परमात्म दशा है, यही मोक्ष है।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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