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आत्मा के असंख्य प्रदेश होते हैं। इन असंख्य प्रदेशों में से एक-एक प्रदेश पर अनन्तानन्त कर्म-वर्गणाओं का संग्रह होना प्रदेश-बंध कहलाता है । जीव के प्रदेश और पुद्गल के प्रदेशों का एक क्षेत्रावगाही होकर स्थित होना प्रवेश बंध है।
नव पदार्थ
प्रकतिः समुदायः स्यात्, स्थितिः कालावधारणम् । अनुभागो रसो ज्ञेयः प्रदेशो
दलसंचयः । ।
बंध के स्वरूप को सम्यक् रूप से समझाने के लिए मोदक का दृष्टान्त दिया जाता
है :
(१) द्रव्य विशेष से बना हुआ मोदक कोई कफ को दूर करता है, कोई वायु को और कोई पित्त को । इस तरह मोदकों की भिन्न-भिन्न प्रकृति है । इसी प्रकार किसी कर्म का स्वभाव ज्ञान रोकने का, किसी कर्म का स्वभाव दर्शन रोकने का, किसी का चारित्र रोकने का होता है । इस तरह कर्म के स्वभाव की अपेक्षा से प्रकृति बंध होता है ।
(२) कोई मोदक एक पक्ष तक, कोई एक महीने तक कोई दो, कोई तीन, कोई चार महीने तक एक रूप में रहता है। उसके बाद वह नष्ट हो जाता है। इस तरह प्रत्येक मोदक की एक रूप में रहने की अपनी-अपनी काल मर्यादा -स्थिति होती है। इसी तरह कोई कर्म उत्कृष्ट रूप से बीस कोटाकोटि सागर प्रमाण स्थितिवाला होता है, कोई तीस कोटाकोटि सागर प्रमाण स्थितिवाला और कोई सत्तर कोटाकोटि सागर प्रमाण स्थितिवाला । बंधे हुये कर्म जितने काल तक स्थित रहते हैं, उसे स्थिति बंध कहते हैं ।
(३) कोई मोदक मधुर होता है, कोई कटुक और कोई तीव्र होता है। इसी तरह कोई एक अणु, कोई दो अणु, कोई तीन अणु, कोई चार अणु मधुर आदि होता है। मोदक के रस भिन्न-भिन्न होते हैं। इसी तरह कर्मों में किसी का मधुर रस, किसी का कटुक किसी का तीक्त रस और किसी का मंद रस होता है। इसको रसबंध रस कहते
रस,
हैं ।
(४) कोई मोदक अल्पदल-परिमाण निष्पन्न, कोई बहुतल निष्पन्न कोई बहुतरदल होता है। मोदकों की रचना - पुद्गल-परिमाण भिन्न-भिन्न होते हैं। इसी तरह बन्धे हुए कर्मों का जो पुद्गल-परिमाण होता है, उसको प्रदेशबंध कहते हैं' ।
इस सम्बन्ध में पं० सुखलालजी ने तत्त्वार्थ सूत्र के गुजराती विवेचन में बड़ा ही सुन्दर विवेचन किया है। उसका अनुवाद यहाँ दिया जाता है
"पुद्गल की वर्गणाएँ - प्रकार अनेक हैं। उनमें से जो वर्गणा कर्मरूप परिणाम पाने की योग्यता रखती है, उसी को जीव ग्रहण कर अपने प्रदेशों के साथ विशिष्ट प्रकार से
नवतत्त्वसाहित्यसंग्रह : अव वृत्यादिसमेत नवतत्त्वप्रकरण गा० 1७१ की वृत्ति
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