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बंध पदार्थ : टिप्पणी ६
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है। वेदनीय कर्म का स्वभाव शहद लपेटी हुई तीक्ष्ण छुरी के समान है। जैसे ऐसी छुरी चाटने से मीठी लगती है, परन्तु जीभ का छेदन करती है, उसी प्रकार वेदनीय कर्म सुख-दुःख अनुभव कराता है। जिससे भवधारण हो, उसे आयुकर्म कहते हैं। आयु का स्वभाव खोडे (बेड़ी) के समान है। जिस तरह खोड़े में रहते हुए प्राणी का उसमें से निकलना संभव नहीं, उसी तरह आयु कर्म की समाप्ति के बिना जीवन का अन्त नहीं आता। जिससे विशिष्ट गति, जाति आदि प्राप्त होते हैं, उसे नाम कर्म कहते हैं। इसका स्वभाव चित्रकार के समान है। चित्रकार नाना आकार बनाता है, उसी प्रकार यह कर्म नाना मनुष्य, तिर्यंचादि के आकार बनाता है। जिससे उच्चता या नीचता प्राप्त होती है, उसे गोत्र कर्म कहते हैं। गोत्र कर्म का स्वभाव कुंभकार के समान है। जिस प्रकार कुंभकार छोटे-बड़े नाना प्रकार के बर्तन बनाता है, उसी प्रकार यह कर्म उच्च-नीच गोत्र प्राप्त कराता है। जो दान, लाभ आदि में अन्तराय डालता है, उसे अन्तरायकर्म कहते हैं। उसका स्वभाव राजभण्डारी के समान है। जिस तरह राजा की इच्छा होने पर भी राजभण्डारी दान नहीं देने देता, उसी तरह अन्तराय कर्म दानादि नहीं देने देता।
इस प्रकार कर्मों के स्वभाव भिन्न-भिन्न हैं। कर्मों का अपने-अपने स्वभाव सहित जीव से सम्बन्धित होना प्रकृति बंध है।
प्रत्येक प्रकृति का कर्म अमुक समय तक आत्म-प्रदेशों के साथ लगा रहता है। इस काल-मर्यादा को स्थिति-बंध कहते हैं। आत्मा के द्वारा ग्रहण की हुई उपर्युक्त कर्मपुद्गलों की राशि कितने काल तक आत्म-प्रदेशों में रहेगी, उसकी मर्यादा स्थिति बंध है।
जीव के व्यापार द्वारा ग्रहण की हुई शुभाशुभ कर्मों की प्रकृतियों का तीव्र मंद इत्यादि प्रकार का अनुभव अनुभाग बंध कहलाता है। कर्म के शुभाशुभ फल की तीव्रता या मंदता को रस कहते हैं। उदय में आने पर कर्म का अनुभव तीव्र या मंद कैसा होगा, यह प्रकृति आदि की तरह ही कर्म-बन्ध के समय ही नियत हो जाता है। इसी का नाम अनुभाग बन्ध है।
१. नवतत्त्वसाहित्यसंग्रह : अव० वृत्त्यादिसमेतं नवतत्त्वप्रकरणम् ७४ :
पडपडिहारासि मज्जहडचित्तकुलाल भंडगारिणं । जह एएसिं भावा कम्माणि वि जाण तह भाव।।