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नव पदार्थ
कर्मों का फल देने के लिए उदय में आना भाव-बंध है। उदहारणस्वरूप जन्म-ग्रहण करने पर भावी तीर्थंकर द्रव्य-तीर्थंकर होता है। बाद में जब वह तेरहवें गुण-स्थान को प्राप्त कर वास्तव में तीर्थंकर होता है, तभी वह भाव-तीर्थंकर कहलाता है। उसी तरह से बंधे हुए कर्मों का सत्तारूप में रहना द्रव्य-बंध है और उन्हीं कर्मों का उदय में आकर फल देने की शक्ति का प्रदर्शन करना भाव-बंध है।
___ कर्म दो प्रकार के होते हैं-शुभ या अशुभ । शुभ कर्म पुण्य कहलाते हैं और अशुभ कर्म पाप । जीव के प्रदेशों के साथ शुभ या अशुभ कर्मों के संश्लेष की अपेक्षा से बंध भी शुभ और अशुभ दो तरह का होता है। शुभ बंध को पुण्य-बंध और अशुभ बंध को पापबंध कहते हैं।
बंधे हुए प्रत्येक कर्म में फल देने की शक्ति होती है परन्तु जिस तरह आम में रस देने की शक्ति होने तथा बीज में सत्तारूप से वृक्ष रहने पर भी बिना पके हुए आम से रस नहीं निकलता तथा अवसर आए बिना वृक्ष प्रगट नहीं होता, ठीक उसी प्रकार कर्मों में फल देने की शक्ति रहने पर भी वे विपाक अवस्था में आए बिना फल नहीं दे पाते। सत्तारूप पुण्य-बंध जब विपाक-काल को प्राप्त हो उदयावस्था में आता है तब जीव को नाना भाँति के सुखों की प्राप्ति होती है और इसी तरह जब सत्तारूप पाप-बंध का उदय होता है तो अनेक प्रकार के दुःखों की प्राप्ति होती है।
९. बंध के चार भेद (गा० ७-१२) :
___ जीव आस्रवों द्वारा कर्म-प्रायोग्य पुद्गलों को ग्रहण कर उन्हें कर्मरूप परिणमन करता है। कर्म आठ हैं-(१) ज्ञानावरणीय, (२) दर्शनावरणीय, (३) वेदनीय, (४) मोहनीय, (५) आयु, (६) नाम, (७) गोत्र और (८) अन्तराय। जो ज्ञान को न होने दे, उसे ज्ञानावरणीय कर्म कहते हैं। जिस तरह आँखों पर पट्टी बांध लेने से वस्तुएँ दिखाई नहीं देती, उसी प्रकार ज्ञानावरणीय कर्म तत्वज्ञान नहीं होने देता। जो दर्शन को रोकता है, उसे दर्शनावरणीय कर्म कहते हैं। जिस तरह द्वारपाल राजा का दर्शन नहीं होने देता, उसी तरह यह कंर्म सामान्य बोध नहीं होने देता। मोहनीय का स्वभाव मदिरा के समान है। जिस तरह मदिरा जीव को बेभान कर देती है, उसी तरह उससे आत्मा-मोह-विह्वल हो जाती है, वह मोहनीय कर्म है। जिससे सुख-दुःख का अनुभव हो, वह वेदनीय कर्म