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नव पदार्थ
संवर होता है। स्वामीजी कहते हैं शुभयोग से निर्जरा होती है और पुण्य का बंध होता है-"शुभ योगां थी निर्जरा धर्म पुण्य पिण थाय रे" पर संवर नहीं होता। शुभयोग संवर नहीं निर्जरा का जनक है।
आगम में भी शुभ योगों से निर्जरा ही बताई गयी है।
पाँचवा निष्कर्ष :
गुप्ति-निवृत्ति रूप है और चारित्र भी निवृत्ति रूप। ये दोनों योग नहीं। उधर समिति, अनुप्रेक्षा, परीषह-जय और तप योग हैं। निवृत्ति और प्रवृत्ति दोनों से ही निर्जरा सिद्ध नहीं हो सकती। संयम से संवर सिद्ध होता है और शुभ योग से निर्जरा । संयम और शुभ योग दोनों निर्जरा के साधक नहीं हो सकते।
स्वामीजी ने उपर्युक्त विषयों पर विशद प्रकाश डाला है। हम यहाँ उनके विवेचन को उद्धृत करते हैं :
सुभ जोग संवर निश्चें नहीं, सुभ जोग निरवद व्यापार । ते करणी छे निरजरा तणी, तिण सूं करम न रूकें लिगार ।। समुदघात करें जब केवली, कांय जोग तणों व्यापार। तिण सूं करम तणी निरजरा हुवें, पुन पिण लागें तिण वार ।। त्यांरी निरजरा सूं पुदगल झऱ्या, त्यां सूं सर्व लोक फरसाय। जोगां सं निश्चें निरजरा हुवें, चोडे देखो सूतर रों न्याय' ।। अकुशल जोग रुंधता निरजरा हुवें, ते निरजरा रुधे त्यां लग जांणों रे। वले निरजरा हुवें कुसल जोग उदीर्या, ते प्रवरतें छे त्यां लग पिछांणो रे ।। ओं तो परिसलीणया तप कह्यों श्री जिणेसर, सूरत उवाई मांह्यो रे । त्यां सुभ जोगां नें कोई संवर सरधे, ते तों चोडे भूला जायो रे ।। प्रसस्त जोग पड़वजीयों साधु, अणंतघाती करमां नें खपायो रे। ए उत्तराधेन गुणतीस में अधेनें, सातमों बोल कह्यों जिणरायो रे।। सामायक रो फल सावद्य जोग निवरतें, इणरो ए गुण नीपनों ताह्यों रे । ए पिण उत्तराधेन गुणतीस में धेनें, कह्यो आठमां बोल रे मांह्यो रे ।।
१. भिक्षु-ग्रन्थ रत्नाकर (ख० १) : टीकम डोसी री चौपई ढा० ३ दो १-३