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________________ निर्जरा पदार्थ (ढाल : २) : टिप्पणी १७ ६८३ समय जहाँ-जहाँ शुभ-अशुभ योगों का निरोध होता है वहाँ तत्सम्बन्धित संवर की भी निष्पति होती है। संवर का हेतु योग-निरोध है और निर्जरा का हेतु तप। स्वामीजी का यह कथन उमास्वाति के निम्न उद्गारों से महत्वपूर्ण अन्तर रखता है-"तप संवर का उत्पादक होने से नये कर्मों के उपचय का प्रतिषेधक है और निर्जरण का फलक होने से पूर्व कर्मों का निर्जरक है। वास्तव में तप संवर का हेतु नहीं योग-निरोध-संयम-संवर का हेतु है। भगवान महावीर से पूछा गया-"भगवन् ! संयम से जीव क्या प्राप्त करता है।" भगवन ने उत्तर दिया-“संयम से जीव आस्रव-निरोध करता है। भगवान से फिर पूछा गया-“भगवान् ! तप से क्या होता है ?" भगवान ने उत्तर दिया-"तप से पूर्वबद्ध कर्मों का क्षय होता है।" आगम में संवर के जो पाँच हेतु बताये गये हैं। उनमें भी तप का उल्लेख नहीं है। ऐसी हालत में तप संवर का प्रधान हेतु है, ऐसा प्रतिपादन फलित नहीं होता। तृतीय निष्कर्ष : तप जब संवर का हेतु नहीं तब कथित संवर-हेतुओं में वह सब से प्रधान है, इस कथन का आधार ही नहीं रहता। संवर के हेतु गुप्ति और चारित्र ही कहे जा सकते हैं, तप नहीं। कहा भी है-"चरित्तेण निगिण्हाइ तवेण परिसुज्झई"४–चारित्र से कर्माश्रव का निरोध-संवर होता है और तप से परिशुद्धि-कर्मों का परिशाटन। चौथा निष्कर्ष : सम्यक् रूप से आना-जाना, बोलना, उठाना-रखना आदि समिति है। शरीर आदि के स्वभाव का बार-बार चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है। क्षुदादि वेदना के होने पर उसे सहना परिषह-जय है | ये सब प्रत्यक्षतः योग रूप हैं। श्री उमास्वाति के अनुसार योग से भी १. त्त्वा० ६.४६ भाष्य : तदाभ्यन्तरं तपः संवरत्वादभिनवकर्मोपचयप्रतिपेधकं निर्जरणफलत्वात्कर्मनिर्जरकम् - २. (क) उत्त० २६.२६-२७ : संजमएणं भंते जीवे किं जणयइ ।। सं० अण्ण्हयत्तं जणयइ।। तवेणं भन्ते जीवे किं जणयइ ।। तवेणं वोदाणं जणयइ।। (ख) ठाणाङ्ग ३.३.१६० ३. समवायाङ्ग सम० ५ ४. उत्त० २८.३५ ५. तत्त्वा० ६.२ सर्वार्थसिद्धि : सम्यगयनं समिति : शरीरादीनां स्वभावानुचिन्तनमनुप्रेक्षा ; क्षुदादिवेदनोत्पत्तौ कर्मनिर्जरार्थ सहनं परिषहः। परिषहस्य जयः परिषहजयः
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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